उधान विभाग
जनवरी महीने में आम के पेड़ों में बौर आना शुरू हो जाता है। इस लिए किसानों को अच्छा उत्पादन पाने के लिए अभी से देखभाल करनी इसकी देखभाल करनी होगी। क्योंकि अगर ज़रा सी चूक हुई तो रोग और कीट पूरी फसल को बर्बाद कर सकते हैं। फलों का राजा आम हमारे देश का सबसे महत्वपूर्ण फल है। इसकी खेती उत्तर प्रदेश, बिहार, आन्ध्र प्रदेश, पश्चिमी बंगाल, तमिलनाडु, उडीसा, महाराष्ट्र, और गुजरात में व्यापक स्तर पर की जाती है। ”इस समय किसानों को बाग में सिंचाई कर देनी चाहिए, जिससे नमी बनी रहे। किसानों को इस समय पेड़ों पर कीटनाशकों का छिड़कार कर देना चाहिए, इसके बाद दूसरा छिड़काव जब फल चने के बराबर हो जाएं तब करना चाहिए,” बागवानी विभाग के ज्वाइंट डायरेक्टर आरपी सिंह ने बताया, ”जिस समय पेड़ों पर बौर लगा हो उस समय किसी भी कीटनाशक का छिड़काव नहीं करना चाहिए, क्योंकि इसका परागड़ हवा या मक्खियों द्वारा होता है। अगर कीटनाशक का छिड़काव कर दिया तो मक्खिया मर जाएंगी और बैर पर नमी होने के कारण परागण नहीं हो पाएगा, जिससे फल बहुत कम आएंगे।”
आम का सफल उत्पादन
आम अपने देश एवं प्रदेश में सर्वाधिक पसंद किए जाने वाला फल है। राज्य की समस्त भाग की जलवायु इसकी खेती हेतु उपयुक्त है। छत्तीसगढ़ में जलवायु की दृष्टि से अतिरिक्त लाभ यह है कि अधिकांश उत्तर भारतीय व्यावसायिक किस्मों में उत्तर भारत की अपेक्षा 20 से 25 दिन पहले फल आता है फलतः फसल भी बाजार में पहले आती है इसलिए इस फल की खेती की राज्य में अपार संभावना है। फूल निकलने के समय आम आर्द्रता, जल या कुहासा को बिल्कुल बर्दाश्त नहीं करता है। औसत वार्षिक वर्षा 150 से.मी. वाले क्षेत्रों में, पर्याप्त सूर्य की रोशनी एवं कम आर्द्रता में आम की फसल अच्छी होती है।
कम अम्लीय मिट्टी में आम की फसल अच्छी होती है। कच्चे आम का उपयोग अचार, चटनी और आमचुर में होता है। पके हुए आम से जाम, अमट, कस्टर पाउडर, टाफी इत्यादि बनाया जाता है सूखे हुए फूल से डायरिया एवं डिसेन्ट्री का भी इलाज सफलतापूर्वक किया जाता है।
क्यों करना है ?
– राज्य में उच्चाइन एवं पड़त भूमि की अधिकता है जहां सिंचाई साधन विकसित कर सफल खेती की जा सकती है।
– उत्तर भारत की अपेक्षा फसल 20 से 25 दिन पहले बाजार में आती है।
– आम के समस्त भाग जैसे पत्ती फल लकड़ी उपयोगी होते हैं।
– आम के बगीचे के साथ-साथ अतिरिक्त आमदनी हेतु प्रारम्भिक 8-10 वर्षों तक अंतरासस्य की भी फसल की जा सकती है।
क्या करना है ?
– उप्युक्त किस्मों का चयन।
– उचित गुणवत्ता के चाहे अनुरूप किस्मों के स्वस्थ पौधों का चयन।
– उपयुक्त भूमि का चयन कर सिंचाई स्रोत विकसित करना।
– चयनित भूमि को जानवरों से सुरक्षित रखने हेतु स्थानीय संसाधनों के अनुरूप उचित घेराव का प्रबंध करना।
कहां करना चाहिए ?
– दोमट भूमि सर्वाधिक उपयुक्त किन्तु सभी प्रकार की भूमि जिसके नीचे कड़ी मिट्टी/चट्टान हो, आम का बगीचा उगाया जा सकता है।
– ऐसी भूमि जहां वर्षा के मौसम में पानी न इकट्ठा होता हो तथा उचित जल निकास की सुविधा हो।
– ऐसी भूमि जहां आंशिक रूप से सिंचाई साधन हो।
– ऐसा क्षेत्र जहां पुष्पन के समय वर्षा होने की संभावना न्यूनतम हो।
– ऐसा स्थान जहां का वायु मंडल प्रदूषित न हो जैसे कि ईंटभट्ठा की चिमनियां आप-पास न हों।
कब करना है ?
– असिंचित/अर्धसिंचित भूमि में माह जून में जब 4 से 6 इंच वर्षा हो चुकी हो पूर्व से तैयार गड्ढों में रोपड़ के लिए उपयुक्त रहता है।
– सिंचाई की उपलब्धता के अनुसार संपूर्ण वर्षा का मौसम 15 जुलाई से 15 अगस्त की अवधि को छोड़कर रोपण हेतु सर्वाधिक उपयुक्त रहता है।
– पर्याप्त एवं सुनिश्चित सिंचाई उपलब्ध होने पर फरवरी-मार्च का माह रोपण हेतु सर्वाधिक उपयुक्त रहता है।
प्रभेदः-
मई में पकने वालीः- बम्बई, स्वर्णरेखा, केसर, अलफांसो।
जून में पकने वाली दशहरी, लंगरा, कृष्णभोग, मल्लिका।
जुलाई में पकने वालीः- फजली, सिपिया, आम्रपाली।
अगस्त में पकने वालीः- बथुआ, चौसा, कातिकी।
रोपण पश्चात निम्नानुसार वर्षवार खाद उर्वरक पौधों में प्रति पौध की मात्रा दें:-
कैसे करना है ?
– बगीचा रोपण हेतु सम्पूर्ण क्षेत्र की सफाई कर उचित रेखांकित करना चाहिए।
– पारंपरिक आम फलोद्यान हेतु पौध से पौध एवं लाइन से लाइन की दूरी 10 से 12 मीटर रखकर 1X1X1 मीटर आकार के गड्ढे माह अप्रैल/मई में खोद लेना चाहिए।
– सघन तकनीकी से आम फलोद्यान हेतु पौध से पौध एवं लाइन से लाइन की दूरी 2.5 मीटर रखते हुए गड्ढे की खुदाई की जाती है।
– वर्षा प्रारम्भ के पूर्व माह जून में प्रति गड्ढा 50 कि. ग्राम गोबर, खाद 500 ग्राम सुपरफॉस्फेट एवं 750 ग्राम पोटाश एवं 50 ग्राम क्लोरोपाइरीफ़्रांस मिट्टी में अच्छी तरह मिलाकर भरना चाहिए।
– उपयुक्त समय आने पर प्रत्येक गड्ढे में एक आम की चयनित किस्म की स्वस्थ पौध का रोपण करना चाहिए।
– वर्षा समाप्ति पश्चात् प्रत्येक 7 से 15 दिनों के अन्तर में सिंचाई करना चाहिए।
– खाद एवं उर्वरकों का प्रयोग वर्ष में दो बार दो भागों में बंाट कर माह जून एवं अक्टूबर माह में रिंग बनवाकर देना चाहिए।
किस्में:-
शीघ्रफलन:- बैंगनफली, बॉम्बे ग्रीन, दशहरी, लंगड़ा, गुलाबखस, तोतापरी।
मध्यमफलन:- अलफांजो, हिमसागर, केशर सुन्दरजा, आम्रपाली, मल्लिका।
देरवाली किस्में:- चैंसा, फजली
प्रसंस्करण वाली किस्में:- तोतापरी, बैंगनफली, आलफांजो
खाद उर्वरक की मात्रा
शुरू के दस साल तक प्रत्येक पौधा को प्रतिवर्ष 160 ग्रा. यूरिया, 115 ग्रा. स्फूर एवं 110 ग्रा. म्यूरेट आॅफ पोटाश दें। दस साल के बाद प्रत्येक पौधा में खाद की मात्रा प्रतिवर्ष दस-गुणा कर दें। बढ़े हुए खाद की मात्रा को दो बराबर भाग में करते हुए पहला भाग जून-जुलाई में और दूसरा भाग अक्टूबर में दें।
आम में प्रायः जिंक, मैग्नीशियम और बोरॉन की कमी पाई जाती है, जिसे सुधारना अति आवश्यक है। जिंक की कमी के लिये जिंक सल्फेट का 3 ग्रा. प्रति ली. पानी में मिलाकर साल में तीन छिड़काव फरवरी-मार्च-मई महीने में करें।
बोरॉन के कमी के लिये 5 ग्रा. बोरेक्स प्रति ली. पानी में और मैग्नीशियम की कमी के लिये 5 ग्राम मैग्नीशियम सल्फेट प्रति ली. पानी में मिलाकर छिड़काव करना लाभदायक होता है।
10 किलो कार्बनिक पदार्थ प्रति पेड़ प्रतिवर्ष के हिसाब से, रासायनिक खाद के साथ मिलाकर देने से आम का उत्पादन बढ़ जाता है। कार्बनिक पदार्थ के रूप में सड़ी हुई गोबर, केंचुआ खाद या सड़ी गली पत्ते वाली खाद का भी प्रयोग कर सकते हैं।
सिंचाई
जिस पौधा में फल लगना शुरू हो जाय उसमें 10 से 15 दिनों के अन्तराल पर पानी अवश्य दें। इससे फल का आकार बढ़ जाता है और फल का असमय गिरना कम हो जाता है। अच्छा मंजर आने के लिये मंजर आने के दो-तीन महीना पहले से ही पानी देना बन्द कर दें क्योंकि इस बीच सिंचाई करने से मंजर आना कम हो जाता है और नया पत्ता बढ़ने लगता है।
पौधा रोपने का तरीका
बरसात का मौसम आम लगाने का उपयुक्त समय है। आम का कलम लगाने के पहले कुछ बातों का ध्यान रखना अति आवश्यक होता है। अप्रैल-मई महीने में 1 मी. लम्बा, 1 मी. चौड़ा और 1 मी. गहरा गड्ढा खोद लिया जाता है। गड्ढे-से-गड्ढे की दूरी 10-10 मी. रखी जाती है। प्रत्येक गड्ढे में गोबर की सड़ी हुई खाद 10 किलो, करंज की खल्ली 2 किलो, सिंगल सुपर फास्फेट 1 किलो, म्युरेट आफ पोटाश आधा किलो, लिण्डेन धूल 100 ग्राम, अच्छी तरह से मिलाकर डाल दें। तत्पश्चात आम के वृक्ष का रोपण बरसात में करें। शुरू में रोज सिंचाई तब तक दें जब तक कि कलम का जड़ मिट्टी में अच्छी तरह से लग न जाये।
अन्तर्वर्तीय फसल
आम का कलम गड्ढा में लगाने के पाँच साल तक अन्तर्वर्तीय फसल लिया जा सकता है। अन्तर्वर्तीय फसल के रूप में टमाटर, मटर, सोयाबीन, उड़द, मक्का, मडुवा, चना, तिसी (अलसी), गेहूँ लिया जा सकता है।
खरपतवार का नियंत्रण
बगीचा को स्वस्थ रखने के लिये खरपतरवार का नियंत्रण जरूरी है। मानसून के पहले घास निकाल दें और दूसरी बार अक्टूबर माह में खरपतवार निकालें। जरूरत पड़े तो रासायनिक तृणनाशक एट्राजीन 2.5 किग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से खरपतवार निकलने से पहले छींट दें और खरपतवार निकलने के बाद ग्रामोक्सोन 3 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से छींट दें।
फल का गिरना
फल गिरने से रोकने के लिये एन.ए.ए. और जी.ए. (0.005 प्रतिशत) का घोल बनाकर छिड़काव करें।
आम का फसल प्रत्येक साल हो, इसके लिये टहनी को काटें एवं उर्वरक का समुचित प्रयोग करें। किस्में जैसे मल्लिका, आम्रपाली, अरका पुनीत एवं पी.के.एम. 1 प्रत्येक साल फल देती है।
कीट एवं उनकी रोकथाम
- मधुआ (हापर)मेलाथिआॅन 50 ई.सी. का 60 मि.ली. अथवा मेटासिस्टोक्स 25 ई.सी. का 25 मि.ली. दवा 20 लीटर पानी में मिलाकर वृक्ष के भींगने तक छिड़काव करें। वृक्ष पर यह छिड़काव तीन बार करें।
पहला– मंजर आने से पहले।
दूसरा– 5-10 प्रतिशत फूल आने पर।
तीसरा– दूसरे छिड़काव के एक महीना बाद जब फल मटर के आकार का हो जाये।
2. मिलीबग (बभनी) पेड़ के तने पर 60 से 100 सेमी. ऊँचाई पर पालीथिन की 20 सेमी. चौड़ी पट्टी बाँधकर निचले सिरे पर 5 सेमी. की चौड़ाई के आस्टिको पेंट अथवा इस्सोफट ट्री ग्रीज 5 सेमी. की चौड़ाई में लेप दें।
आम पर लगने वाले कीट गुठली का घुन (स्टोन वीविल)- यह कीट घुन वाली इल्ली की तरह होता है। जो आम की गुठली में छेद करके घुस जाता है और उसके अन्दर अपना भोजन बनाता रहता है। कुछ दिनों बाद ये गूदे में पहुंच जाता है और उसे हानि पहुंचाता है। इस की वजह से कुछ देशों ने इस कीट से ग्रसित बागों से आम का आयात पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिया था। रोकथाम- इस कीड़े को नियंत्रित करना थोड़ा कठिन होता है इसलिए जिस भी पेड़ से फल नीचे गिरें उस पेड़ की सूखी पत्तियों और शाखाओं को नष्ट कर देना चाहिए। इससे कुछ हद तक कीड़े की रोकथाम हो जाती है। - शुट गाल
(क) मध्य अगस्त से 15 दिनों के अन्तर पर रोगर अथवा नुवाक्राॅन दवा 2 मिली. प्रति लीटर के हिसाब से छिड़काव करें।
(ख) दिसम्बर-जनवरी के महीने में गाँठ से नीचे थोड़ी सी पुरानी लकड़ी के साथ काट कर जला दें।
4- तना छेदकनुवाक्रान/मेलाथिआन दवा का 0.5 से 1.0 प्रतिशत घोल अथवा पेट्रोल/किरासन तेल कपड़े में भीगो कर छेद में भरकर, गीली मिट्टी से छेद को भर दें। घोल के बदले सल्फास की टिकिया को भी छेद में डाल जा सकता है।
जाला कीट (टेन्ट केटरपिलर)- प्रारम्भिक अवस्था में यह कीट पत्तियों की ऊपरी सतह को तेजी से खाता है। उसके बाद पत्तियों का जाल या टेन्ट बनाकर उसके अन्दर छिप जाता है और पत्तियों को खाना जारी रखता है। रोकथाम- पहला उपाय तो यह है कि एज़ाडीरेक्टिन 3000 पीपीएम ताकत का 2 मिली लीटर को पानी में घोलकर छिड़काव करें। दूसरा संभव उपाय यह किया जा सकता है कि जुलाई के महीने में कुइनोलफास 0.05 फीसदी या मोनोक्रोटोफास 0.05 फीसदी का 2-3 बार छिड़काव करें। दीमक- दीमक सफेद, चमकीले एवं मिट्टी के अन्दर रहने वाले कीट हैं। यह जड़ को खाता है उसके बाद सुरंग बनाकर ऊपर की ओर बढ़ता जाता है। यह तने के ऊपर कीचड़ का जमाव करके अपने आप को सुरक्षित करता
रोग और उनकी रोकथाम
- चूर्णी फफंदआधा मिली. कैराथेन 1 लीटर पानी में डालकर तीन छिड़काव फरवरी-मार्च में 15 दिनों के अन्तराल पर करें।
2. एन्थ्रकनोज (श्यामपर्ण)ब्लाइटास 50 के 2.5 मिली. एक लीटर पानी में डालकर तीन छिड़काव फरवरी से मार्च के मध्य तक करें। ब्लाईटाक्स 50 के बदले चार मिली. कैलेथीन प्रति लीटर पानी में डालकर अथवा 2 मिली. बैविस्टीन प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव किया जा सकता है।
3. गुच्छारोग (मालफारमेशन)
(क) वानस्पतिक गुच्छा रोग 1 लीटर पानी में 2 मिली. की दर से ब्लाईटाॅक्स 50 का घोल बनाकर छिड़काव करें।
(ख) पुष्पक्रम गुच्छा रोग अक्टूबर में 2000 पी.पी.एम. नैप्थेलीन एसिटिक एसिड का छिड़काव करें। दिसम्बर-जनवरी के महीने में पुष्पक्रमों को काट दें।
इन उपायों से अपने पेड़ों को बचाएं तने के ऊपर से कीचड़ के जमाव को हटाना चाहिए। तने के ऊपर 1.5 फीसदी मेलाथियान का छिड़काव करें। दीमक से छुटकारा मिलने के दो महीने बाद पेड़ के तने को मोनोक्रोटोफास (1 मिली प्रति लीटर) से मिट्टी पर छिड़काव करें। दस ग्राम प्रति लीटर बिवेरिया बेसिआना का घोल बनाकर छिड़काव करें। भुनगा कीट- यह कीट आम की फसल को सबसे अधिक नुकसान पहुंचाते हैं। इस कीट के लार्वा एवं वयस्क कीट कोमल पत्तियों एवं पुष्पक्रमों का रस चूसकर हानि पहुचाते हैं। इसकी मादा 100-200 तक अंडे नई पत्तियों एवं मुलायम प्ररोह में देती है, और इनका जीवन चक्र 12-22 दिनों में पूरा हो जाता है। इसका प्रकोप जनवरी-फरवरी से शुरू हो जाता है।
इस कीट से बचने के लिए बिवेरिया बेसिआना फफूंद के 0.5 फीसदी घोल का छिड़काव करें। नीम तेल 3000 पीपीएम प्रति 2 मिली प्रति लीटर पानी में मिलाकर, घोल का छिड़काव करके भी निजात पाया जा सकता है। इसके अलावा कार्बोरिल 0.2 फीसदी या कुइनोल्फास 0.063 फीसदी का घोल बनाकर छिड़काव करने से भी राहत मिल जाएगी।
आम पर लगने वाले रोग व उनसे बचाव के उपाय सफेद चूर्णी रोग (पाउडरी मिल्ड्यू)- बौर आने की अवस्था में यदि मौसम बदली वाला हो या बरसात हो रही हो तो यह बीमारी लग जाती है। इस बीमारी के प्रभाव से रोगग्रस्त भाग सफेद दिखाई पडऩे लगता है। इसकी वजह से मंजरियां और फूल सूखकर गिर जाते हैं। इस रोग के लक्षण दिखाई देते ही आम के पेड़ों पर 5 प्रतिशत वाले गंधक के घोल का छिड़काव करें। इसके अलावा 500 लीटर पानी में 250 ग्राम कैराथेन घोलकर छिड़काव करने से भी बीमारी पर काबू पाया जा सकता है। जिन क्षेत्रों में बौर आने के समय मौसम असामान्य रहा हो वहां हर हालत में सुरक्षात्मक उपाय के आधार पर 0.2 प्रतिशत वाले गंधक के घोल का छिड़काव करें एवं आवश्यकतानुसार दोहराएं। कालवूणा (एन्थ्रेक्नोस)- यह बीमारी अधिक नमी वाले क्षेत्रों में अधिक पाई जाती है। इसका आक्रमण पौधों के पत्तों, शाखाओं, और फूलों जैसे मुलायम भागों पर अधिक होता है। प्रभावित हिस्सों में गहरे भूरे रंग के धब्बे आ जाते हैं। प्रतिशत 0.2 जिनैब का छिड़काव करें। जिन क्षेत्रों में इस रोग की सम्भावना अधिक हो वहां सुरक्षा के तौर पर पहले ही घोल का छिड़काव करें।
ब्लैक टिप (कोएलिया रोग)- यह रोग ईंट के भट्ठों के आसपास के क्षेत्रों में उससे निकलने वाली गैस सल्फर डाई ऑक्साइड के कारण होता है। इस बीमारी में सबसे पहले फल का आगे का भाग काला पडऩे लगता है इसके बाद ऊपरी हिस्सा पीला पड़ता है। इसके बाद गहरा भूरा और अंत में काला हो जाता है। यह रोग दशहरी किस्म में अधिक होता है। इस रोग से फसल बचाने का सबसे अच्छा उपाय यह है कि ईंट के भट्ठों की चिमनी आम के पूरे मौसम के दौरान लगभग 50 फुट ऊंची रखी जाए। इस रोग के लक्षण दिखाई देते ही बोरेक्स 10 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से बने घोल का छिड़काव करें। फलों के बढ़वार की विभिन्न अवस्थाओं के दौरान आम के पेड़ों पर 0.6 प्रतिशत बोरेक्स के दो छिड़काव फूल आने से पहले तथा तीसरा फूल बनने के बाद करें। जब फल मटर के दाने के बराबर हो जाएं तो 15 दिन के अंतराल पर तीन छिड़काव करने चाहिए। गुच्छा रोग – इस बीमारी का मुख्य लक्षण यह है कि इसमें पूरा बौर नपुंसक फूलों का एक ठोस गुच्छा बन जाता है। बीमारी का नियंत्रण प्रभावित बौर और शाखाओं को तोड़कर किया जा सकता है। अक्टूबर माह में 200 प्रति दस लक्षांश वाले नेप्थालिन एसिटिक एसिड का छिड़काव करना और कलियां आने की अवस्था में जनवरी के महीने में पेड़ के बौर तोड़ देना भी लाभदायक रहता है क्योंकि इससे न केवल आम की उपज बढ़ जाती है बल्कि इस बीमारी के आगे फैलने की संभावना भी कम हो जाती है।
पत्तों का जलना– उत्तर भारत में आम के कुछ बागों में पोटेशियम की कमी से एवं क्लोराइड की अधिकता से पत्तों के जलने की गंभीर समस्या पैदा हो जाती है। इस रोग से ग्रसित वृक्ष के पुराने पत्ते दूर से ही जले हुए जैसे दिखाई देते हैं। इस समस्या से फसल को बचाने हेतु पौधों पर 5 प्रतिशत पोटेशियम सल्फेट के छिड़काव की सिफारिश की जाती है। यह छिड़काव उसी समय करें जब पौधों पर नई पत्तियां आ रही हों। ऐसे बागों में पोटेशियम क्लोराइड उर्वरक प्रयोग न करने की सलाह भी दी जाती है। 0.1 प्रतिशत मेलाथिऑन का छिड़काव भी प्रभावी होता है।
डाई बैक– इस रोग में आम की टहनी ऊपर से नीचे की ओर सूखने लगती है और धीरे-धीरे पूरा पेड़ सूख जाता है। यह फफूंद जनित रोग होता है, जिससे तने की जलवाहिनी में भूरापन आ जाता है और वाहिनी सूख जाती है एवं जल ऊपर नहीं चढ़ पाता है इसकी रोकथाम के लिए रोग ग्रसित टहनियों के सूखे भाग को 15 सेमी नीचे से काट कर जला दें। कटे स्थान पर बोर्डो पेस्ट लगाएं तथा अक्टूबर माह में कॉपर ऑक्सी कलोराइड का 0.3 प्रतिशत घोल का छिड़काव करें।
प्रथम वर्ष | |
भूमि की तैयारी व रेखांकन | 9,000 |
गड्ढो की खुदाई, गोबर की खाद, रसायन व उर्वक पर व्यय | 16,000 |
गड्ढो में खाद उर्वक व रसायन मिलाना व गड्डे की भराई | 7,000 |
पौध पर व्यय व ढुलाई | 5,000 |
पौधा लगाई पर व्यय निकई गुड़ाई व सिचाई पर व्यय | 10,000 |
द्वितीय वर्ष | |
पौधों की सिचाई | 3,000 |
निकाई गुड़ाई | 1,600 |
खाध उर्वक पर व्यय | 4,000 |
तृतीय वर्ष | |
पौधों की निकाई गुढ़ाई पर व्यय | 3,000 |
सिचाई पर व्यय | 1,600 |
उर्वरक व रसायन पर व्यय | 4,000 |
चतुर्थ वर्ष | |
सिचाई पर व्यय | 3,000 |
निकाई गुड़ाई पर व्यय | 1,600 |
उर्वरक व रसायन पर व्यय | 4,000 |
अनुमानित सम्पूर्ण व्यय | 72,800 |
अनुमानित उत्पादन (150×1500) | 2,25,000 |
शुद्ध आय | 1,52,200 |
अमरूद
अमरुद की खेती के साथ सह–फसली के रूप में आलू की खेती का विवरण प्रति हेक्टेयर–
अमरूद बहुतायत में पाया जाने वाला एक आम फल है और यह माइरेटेसी कुल का सदस्य है| अमरुद की बागवानी भारतवर्ष के सभी राज्यों में की जाती है| उत्पादकता, सहनशीलता तथा जलवायु के प्रति सहिष्णुता के साथ-साथ विटामिन ‘सी’ की मात्रा की दृष्टि से अन्य फलों की अपेक्षा यह अधिक महत्वपूर्ण है| अधिक पोषक महत्व के अलावा, अमरूद बिना अधिक संसाधनों के भी हर वर्ष अधिक उत्पादन देता है, जिससे पर्याप्त आर्थिक लाभ मिलता है| इन्हीं सब कारणों से किसान अमरूद की व्यावसायिक बागवानी करने लगे हैं|
इसकी बागवानी अधिक तापमान, गर्म हवा, वर्षा, लवणीय या कमजोर मृदा, कम जल या जल भराव की दशा से अधिक प्रभावित नहीं होती है| किन्तु लाभदायक फसल प्राप्त करने के लिए समुचित संसाधनों का सही तरीके से उपयोग करना आवश्यक है| आर्थिक महत्व के तौर पर अमरूद में विटामिन ‘सी’ प्रचुर मात्रा में पाया जाता है, जो सन्तरे से 2 से 5 गुना तथा टमाटर से 10 गुना अधिक होता है|
अन्य फलों की अपेक्षा अमरूद कैल्शियम, फॉस्फोरस एवं लौह तत्वों का एक बहुत अच्छा श्रोत है| इसका मुख्य रूप से व्यावसायिक उपयोग कई प्रकार के संसाधित उत्पाद जैसे जेली, जैम, चीज, गूदा, जूस, पाउडर, नेक्टर, इत्यादि बनाने में किया जाता है| भारत के लगभग हर राज्य में अमरूद उगाया जाता है, परन्तु मुख्य राज्य बिहार, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, कर्नाटक, गुजरात और आन्ध्रप्रदेश हैं|
उपयुक्त जलवायु
अमरूद विभिन्न प्रकार की जलवायु में असानी से उगाया जा सकता है| हालाँकि, उष्णता (अधिक गर्मी) इसे प्रतिकूल रूप से प्रभावित करती है, किन्तु उष्ण जलवायु वाले क्षेत्रों की अपेक्षा यह स्पष्ट रूप से सर्दी तथा गर्मी वाले क्षेत्रों में प्रचुर व उच्च गुणवत्तायुक्त फल देता है| अन्य फलों की अपेक्षा अमरूद में सूखा सहने की क्षमता अधिक होती है|
भूमि का चयन
अमरूद एक ऐसा फल है, जिसकी बागवानी कम उपजाऊ और लवणीय परिस्थितियों में भी बहुत कम देख-भाल द्वारा आसानी से की जा सकती है| यद्यपि यह 4.5 से 9.5 पी एच मान वाली मिट्टी में पैदा किया जा सकता है| परन्तु इसकी सबसे अच्छी बागवानी दोमट मिट्टी में की जाती है| जिसका पी एच मान 5 से 7 के मध्य होता है|
खेत की तैयारी
अमरूद की खेती के लिए पहली जुताई गहराई से करनी चाहिए| इसके साथ साथ जुताई या अन्य स्रोत से कर के खेत को समतल और खरपतवार मुक्त कर लेना चाहिए| इसके बाद कम उपजाऊ भूमि में 5 X 5 मीटर और उपजाऊ भूमि में 6.5 X 6.5 मीटर की दूरी पर रोपाई हेतु पहले 60 सेंटीमीटर चौड़ाई, 60 सेंटीमीटर लम्बाई, 60 सेंटीमीटर गहराई के गड्ढे तैयार कर लेते है| 6 X 6 मीटर की दूरी पर प्रति हेक्टेयर 277 पौधे प्रति हेक्टेयर लगते है।
उन्नत किस्में
इलाहाबाद सफेदा तथा सरदार (एल- 49) अमरूद की प्रमुख किस्में हैं| जो व्यावसायिक दृष्टि से बागवानी के लिए महत्वपूर्ण हैं| किस्म ‘इलाहाबाद सफेदा उच्च कोटि का अमरूद है| इसके फल मध्यम आकार के गोल होते हैं| इसका छिलका चिकना और चमकदार, गूदा सफेद, मुलायम, स्वाद मीठा, सुवास अच्छा और बीजों की संख्या कम होती है तथा बीज मुलायम होते हैं| सरदार अमरूद अत्यधिक फलत देने वाले होते हैं और इसके फल उच्चकोटि के होते हैं|
प्रवर्धन की विधि
आज भी बहुत से स्थानों में अमरूद का प्रसारण बीज द्वारा होता है| परन्तु इसके वृक्षों में भिन्नता आ जाती है| इसलिए यह जरूरी है कि वानस्पतिक विधि द्वारा पौधे तैयार किये जाएं| चूँकि अमरूद प्रसारण की अनेक विधियां हैं, परन्तु आज-कल प्रसारण की मुख्यरूप से कोमल शाख बन्धन एवं स्टूलिंग कलम द्वारा की जा सकती है|
पौधारोपण विधि
अमरूद की खेती हेतु पौधा रोपण का मुख्य समय जुलाई से अगस्त तक है| लेकिन जिन स्थानों में सिंचाई की सुविधा हो वहाँ पर पौधे फरवरी से मार्च में भी लगाये जा सकते हैं| बाग लगाने के लिये तैयार किये गये खेत में निश्चित दुरी पर 60 सेंटीमीटर चौड़ाई, 60 सेंटीमीटर लम्बाई, 60 सेंटीमीटर गहराई आकार के जो गड्ढे तैयार किये गये है|
उन गड्ढों को 25 से 30 किलोग्राम अच्छी तैयार गोबर की खाद, 500 ग्राम सुपर फॉस्फेट तथा 100 ग्राम मिथाईल पैराथियॉन पाऊडर को अच्छी तरह से मिट्टी में मिला कर पौधे लगाने के 15 से 20 दिन पहले भर दें और रोपण से पहले सिंचाई कर देते है|
इसके पश्चात पौधे की पिंडी के अनुसार गड्ढ़े को खोदकर उसके बीचो बीच पौधा लगाकर चारो तरफ से अच्छी तरह दबाकर फिर हल्की सिचाई कर देते है| बाग में पौधे लगाने की दूरी मृदा की उर्वरता, किस्म विशेष एवं जलवायु पर निर्भर करती है|
सघन बागवानी पौधारोपण
अमरूद की सघन बागवानी के बहुत अच्छे परिणाम प्राप्त हुये हैं| सघन रोपण में प्रति हैक्टेयर 500 से 5000 पौधे तक लगाये जा सकते हैं, तथा समय-समय पर कटाई-छँटाई करके एवं वृद्धि नियंत्रकों का प्रयोग करके पौधों का आकार छोटा रखा जाता है| इस तरह की बागवानी से 30 से 50 टन प्रति हेक्टेयर तक उत्पादन लिया जा सकता है| जबकि पारम्परिक विधि से लगाये गये बागों का उत्पादन 15 से 20 टन प्रति हेक्टेयर होता है| सघन बागवानी के लिए जो विधियां सबसे प्रभावी रही है|
- 3 मीटर लाइन से लाइन की दुरी, और 1.5 मीटर पौधे से पौधे की दुरी, कुल 2200 के करीब पौधे प्रति हैक्टेयर|
- 3 मीटर मीटर लाइन से लाइन की दुरी, 3 मीटर पौधे से पौधे की दुरी, कुल 1100 के करीब पौधे प्रति हैक्टेयर|
- 6 मीटर लाइन से लाइन की दुरी, 1.5 मीटर पौधे से पौधे की दुरी, कुल 550 के करीब पौधे प्रति हैक्टेयर|
फल तुड़ाई
उत्तरी भारत में अमरूद की दो फसलें होती हैं| एक वर्षा ऋतु में एवं दूसरी शीत ऋतु में, शीतकालीन फसल के फलों में गुणवत्ता अधिक होती है| फलों की व्यापारिक किस्मों के परिपक्वता मानक स्थापित किए जा चुके हैं| आमतौर पर फूल लगने के लगभग 4 से 5 महीने में अमरूद के फल पक कर तोड़ने के लिए तैयार हो जाते हैं| इस समय फल का गहरा हरा रंग पीले-हरे या हल्के पीले रंग में बदल जाता है| अमरूद के फल अधिकतर हाथ द्वारा ही तोड़े जाते हैं|
वर्षा ऋतु की फसल को प्रत्येक दूसरे या तीसरे दिन तोड़ने की आवश्यकता रहती है| जबकि सर्दी की फसल 4 से 5 दिनों के अंतराल पर तोड़नी चाहिए| फलों को एक या दो पत्ती के साथ तोड़ना अधिक उपयोगी पाया गया है| फलों को तोड़ते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि उनमें किसी प्रकार की खरोंच अथवा चोट न लगे और वे ज़मीन पर न गिरने पाएं|
पैदावार
अमरूद के पौधे, दूसरे साल के अन्त या तीसरे साल के शुरूआत से फल देना आरम्भ कर देते हैं| तीसरे साल में लगभग 8 टन प्रति हेक्टेयर चौथे साल 10 टन प्रति हेक्टेयर उत्पादन होता है, जो सातवें वर्ष में 25 टन प्रति हेक्टेयर तक बढ़ जाता है| उपयुक्त तकनीक का प्रयोग करके 40 वर्षों तक अमरूद के पौधों से फसल ली जा सकती है| आर्थिक दृष्टि से 20 वर्षों तक अमरूद के पौधों से लाभकारी उत्पादन लिया जा सकता है| सघन बागवानी से 30 से 40 टन तक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है|
पेटीबंदी
गत्ते की पेटियां (सी एफ बी बक्से) अमरूद के फलों को पैक करने के लिए उचित पायी गयी हैं| इन पेटियों में 0.5 प्रतिशत छिद्र, वायु संचार के लिए उपयुक्त होते हैं| नए शोधों से ज्ञात होता है, कि फलों को 0.5 प्रतिशत छिद्रयुक्त पॉलीथीन की पैकिंग में भी रखा जा सकता है|
लाभकारी उत्पादन हेतु महत्वपूर्ण बिन्दु
अमरूद की लाभकारी बागवानी एवं उत्पादन के लिए संक्षेप में कुछ सुझाव इस प्रकार है, जैसे-
- अधिक उत्पादन देने वाली विश्वसनीय किस्मों का चयन करना|
- सघन बागवानी पद्धति को अपनाना|
- प्रारम्भिक अवस्था से ही पौधों को विशेष आकार देने तथा मजबूत ढाँचे के लिए कटाई-छंटाई प्रक्रिया अपनाना, ताकि पौधे ऊँचाई में अधिक न बढ़े|
- पानी के समुचित उपयोग के लिए टपक (ड्रिप) सिंचाई प्रणाली का प्रयोग|
- बाग की समुचित सफाई, एन्थ्रेकनोज एवं उकठा रोग तथा फल-मक्खी एवं छाल-भक्षी कीट का प्रबन्धन|
- उकठा रोग नियंत्रण हेतु एस्परजिलस नाइजर एवं ट्राइक, प्रयोग करना|
- बाग स्थापन हेतु उकठा रोग प्रतिरोधी मूलवृन्त पर प्रसारित पौधों का उपयोग|
- समय पर अमरूद के फलों की तुड़ाई|
- फसल नियमन हेतु यूरिया का प्रयोग अथवा मई माह में शाखाओं की 50 प्रतिशत तक कटाई|
- अमरूद के पुराने बागों का जीर्णोद्धार करें|
- फल बिक्री हेतु बाजार का सर्वेक्षण तथा वहाँ फलों को भेजने की व्यवस्था करना|
खेती की सामग्री और श्रम | निवेश (रु0 में) |
पौधारोपण करना | 11,200 |
खाद और उर्वरक की लागत | 7,000 |
कीटनाशक और कीटनाशक की लागत | 5,000 |
श्रम लागत 100 दिनों में 2 व्यक्तियों के लिए प्रति दिन 200 रु | 20,000 |
बिजली शुल्क | 10,000 |
प्रति हेक्टेयर के लिए सिंचाई पाइपलाइन | 1,00,000 |
ड्रिप सिंचाई उपकरण | 35,000 |
कृषि उपकरण | 10,000 |
पंप घर | 20,000 |
खेत क्षेत्र बाड़ लगाना | 35,000 |
मिट्टी को समतल करना | 8,000 |
कुल लागत | 2,61,200 |
फल का अनुमानित उत्पादन प्रति हेक्टेयर 250 कुंतल
फल का अनुमानित रेट – 1500 रु0 प्रति कुंतल
कुल धनराशि – 375000
कुल व्यय – 262100
शुद्ध आय रु0 में – 112900 प्रति हेक्टेयर.
केला
केले की खेती के लिए देश और दुनिया में 300 से अधिक किस्में पाई जाती है| लेकिन इनमें से 15 से 20 क़िस्मों को ही व्यवसायिक तौर पर बागवानी के लिए उपयोग में लाया जाता है| केले की विभिन्न प्रजातियों को दो वर्गों में बाँटा गया है, पहला वे किस्में जो फल के रूप में खाने के लिए उगाई जाती है और दूसरा वे जो शाकभाजी के रूप में प्रयोग किये जाने के लिए उगाई जाती है|
पहले वर्ग में उगाई जाने वाली उन्नत किस्मे जैसे पूवन, चम्पा, अमृत सागर, बसराई ड्वार्फ, सफ़ेद बेलची, लाल बेलची, हरी छाल, मालभोग, मोहनभोग और रोबस्टा आदि प्रमुख है| इसी प्रकार शाकभाजी के लिए उगाई जाने वाली उन्नतशील प्रजातियों में मंथन, हजारा, अमृतमान, चम्पा, काबुली, बम्बई, हरी छाल, मुठिया, कैम्पियरगंज तथा रामकेला प्रमुख है| केले की फसल से अच्छी उपज के लिए कृषक बन्धुओं को अपने क्षेत्र की प्रचलित और अधिकतम उत्पादन देने वाली किस्म का चयन करना चाहिए| इस लेख में प्रचलित और आकर्षक केले की उन्नत एवं संकर किस्मों की विशेषताओं और पैदावार की जानकारी का उल्लेख किया गया है|
उन्नतशील किस्में
ड्वार्फ केवेन्डिस– इस केले की किस्म को भुसावली, बसराई, मारिसस, काबुली, सिन्दुरानी, सिंगापुरी जहाजी, मोरिस आदि नाम से जाना जाता है| यह भारत की सबसे महत्वपूर्ण किस्म है और व्यवसायिक खेती में उगाई जाने वाली क़िस्मों में सबसे बौनी किस्म है| इसका पौधा छोटा, फल बड़े, घूमे हुए, छिलका मोटा तथा फलों का रंग हरा होता है|
गूदा मुलायम और मीठा होता है| गुच्छे का औसतन भार 20 किलोग्राम होता है| इसकी भंडारण क्षमता अच्छी नही होती है| यह किस्म पर्णचित्ती रोग के प्रति असहनशील है तथा पनामा रोग हेतु पूर्ण प्रतिरोधी है| यह किस्म उपोष्ण जलवायु मे अच्छी पैदावार देती है और अन्य क़िस्मों की तुलना में सर्दी के प्रति सहनशील है|
रोबस्टा– इस केले की किस्म को बाम्बेग्रीन, हरीछाल, बोजीहाजी आदि नामो से अलग अलग प्रांतो मे उगाया जाता है| इस प्रजाति को पश्चिमी दीप समूह से लगाया गया है| पौघों की ऊंचाई 3 से 4 मीटर, तना माध्यम मोटाई हरे रंग का होता है| प्रति पौधे मे 10 से 19 गुच्छे के पुष्प होते हैं, जिनमें हरे रंग के फल विकसित होते है|
गुच्छे का वजन औसतन 25 से 30 किलोग्राम होता है| फल अधिक मीठे एवं आकर्षक होते हैं| फल पकने पर चमकीले पीले रंग के हो जाते है| यह किस्म लीफ स्पॉट बीमारी से काफी प्रभावित होती है| फलों की भंडारण क्षमता कम होती है|
पूवन– इस केले की किस्म को चीनी चम्पा, लाल वेल्ची और कदली कोडन के नाम से जाना जाता है| इसका पौघा बेलनकार मध्यम ऊंचाई का 2.25 से 2.75 मीटर होता है| रोपण के 9 से 10 महीने बाद में पुष्पण प्रांरभ हो जाता है| इसमें 10 से 12 गुच्छे आते हैं| प्रत्येक गुच्छे में 14से 16 फल लगते है|
फल छोटे बेलनाकार एवं उभरी चोंच वाले होते हैं| फल का गूदा हाथी के दांत के समान सफेद और ठोस होता है| इसे अधिक समय तक भण्डारित किया जा सकता है| फल पकने के बाद भी टूटकर अलग नहीं होते|
नेन्द्रन– इस केले की किस्म की उत्पत्ति दक्षिण भारत से हुई है| इसे सब्जी केला या रजेली भी कहते हैं| इसका उपयोग चिप्स बनाने में सर्वाधिक होता है| इसका पौधा बेलनाकार मध्यम मोटा तथा 3 मीटर ऊंचाई वाला होता है| गुच्छे में 4 से 6 डंडल और प्रत्येक डंडल में 8 से 14 फल होते हैं|
फल 20 सेंटीमीटर लम्बा, छाल मोटी तथा थोड़ा मुड़ा और त्रिकोणी होता है| जब फल कच्चा होता है, तो इसमें पीलापन रहता है| परंतु पकने पर छिलका कड़क हो जाता है| इसका मुख्य उपयोग चिप्स एवं पाउडर बनाने के लिये किया जाता है|
रस्थली– इस केले की प्रजाति को मालभोग अमृत पानी सोनकेला रसवाले आदि नामों से विभिन्न राज्यों मे व्यावसायिक रूप से उगाया जाता है| पौधे की ऊंचाई 2.5 से 3.0 मीटर होती है| पुष्पन 12 से 14 माह के बाद ही प्रारंभ होता है| फल चार कोण बाले हरे, पीले रगं के मोटे होते हैं|
छिलका पतला होता है, जो पकने के बाद सुनहरे पीले रगं के हो जाते हैं| केले का गुच्छा 15 से 20 किलोग्राम का होता है| फल अधिक स्वादिष्ट सुगन्ध पके सेब जैसी कुछ मिठास लिये हुये होते है| केले का छिलका कागज की तरह पतला होता है| इस प्रजाति की भण्डारण क्षमता कम होती है|
करपूरावल्ली– इसे बोन्था, बेन्सा एवं केशकाल आदि नामों से जाना जाता है| यह केले की किस्म किचन गार्डन में लगाने लिए उपयुक्त पायी गयी है| इसका पौधा 10 से 12 फीट लम्बा होता है| तना काफी मजबूत होता है| फल गुच्छे में लगते है| एक पौधे में 5 से 6 गुच्छे बनते हैं, जिसमें 60 से 70 फल होते हैं| इनका वजन 18 से 20 किलोग्राम होता है| फल मोटे नुकीले और हरे पीले रंग के होते हैं| यह चिप्स एवं पाउडर बनाने के लिये सबसे उपयुक्त प्रजाति है|
हरी छाल– इससे बोम्बे ग्रीन, रोबस्टा तथा पड्डा पच आरती भी कहते है| यह केले की किस्म महाराष्ट्र में बड़े पैमाने पर उगाई जाती है| यह ड्वार्फ के विनदश के उत्परिवर्तन से प्राप्त किस्म है| जिसके पौधे अर्ध लम्बे होते है| गुच्छे का औसत भार 20 किलोग्राम होता है| यह किस्म नम तटीय क्षेत्रो में अच्छी बृद्धि करती है|
हिल बनाना– दो प्रकार कि किस्मे विरुपाक्षी तथा सिरुमलाई तमिलनाडु कि विशेषता कहलाती है| गुच्छे का ओसत भार 12 किलो ग्राम होता है| इसकी फलन अवधि 14 माह कि होती है|
संकर किस्में
सी ओ 1- इस केले की संकर किस्म को लड़न तथा कदली के विभिन्न संस्करणों के द्वारा प्राप्त किया गया है| फलन अवधि 14 माह कि है, इस किस्म के गुच्छे का ओसत 10 भार किलो ग्राम होता है|
एच 1- अग्निस्वार + पिसांग लिलिन, यह लीफ स्पॉट फ्यूजेरियम बीमारी निरोधक कम अवधि वाली उपर्युक्त किस्म है| यह बरोइंग सूत्र कृमि के लिए अवरोधक है| इस केले की संकर प्रजाति का पौधा मध्यम ऊंचाई का होता है, और इसमें लगने वाले गुच्छे का वजन 14 से 16 किलोग्राम का होता है| फल लम्बे, पकने पर सुनहरे या पीले रगं के हो जाते हैं| पकने पर इसमें हल्का खट्टा स्वाद रहता है| इसके तीन वर्ष के फसल चक्र में चार फसलें ली जा सकती हैं|
एच 2- इस केले की प्रजाति के पौधे लगभग 2.25 से 2.50 मीटर उंचे होते है| गुच्छे का भार लगभग 15 से 20 किलोग्राम होता है| हरे रंग के छोटे फलों में खट्टा-मिट्ठा स्वाद रहता है|
एफ एच आई ए 1- इस केले की संकर प्रजाति का अनुवान्सिक संघटन एएएबी होता है| यह पनामा विल्ट सिगाटोका रोग के लिए प्रतिरोधक क्षमता प्रदर्शित करती है| फल गुच्छे का आकार औसतन 18 से 20 किलोग्राम होता है|
रोगों का नियंत्रण
केले की खेती में फसल सुरक्षा हेतु रोगों का नियंत्रण कैसे करते रहना चाहिए और इसमे कौन कौन से रोग लगने की संभावना रहती है?
केले की फसल में कई रोग कवक एवं विषाणु के द्वारा लगते है जैसे पर्ण चित्ती या लीफ स्पॉट ,गुच्छा शीर्ष या बन्ची टाप,एन्थ्रक्नोज एवं तनागलन हर्टराट आदि लगते है नियंत्रण के लिए ताम्र युक्त रसायन जैसे कापर आक्सीक्लोराइट 0.3% का छिडकाव करना चाहिए या मोनोक्रोटोफास 1.25 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी के साथ छिडकाव करना चाहिए
कीट नियंत्रण
केले की खेती में कौन कौन से कीट लगते है और उसका नियंत्रण हम किस प्रकार करे? केले में कई कीट लगते है जैसे केले का पत्ती बीटिल (बनाना बीटिल),तना बीटिल आदि लगते है नियंत्रण के लिए मिथाइल ओ -डीमेटान 25 ई सी 1.25 मिली० प्रति लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करना चाहिएI या कारबोफ्युरान अथवा फोरेट या थिमेट 10 जी दानेदार कीटनाशी प्रति पौधा 25 ग्राम प्रयोग करना चाहिए
तैयार फल की कटाई
केला तैयार होने पर उसकी कटाई किस प्रकार करनी चाहिए? केले में फूल निकलने के बाद लगभग 25-30 दिन में फलियाँ निकल आती है पूरी फलियाँ निकलने के बाद घार के अगले भाग से नर फूल काट देना चाहिए और पूरी फलियाँ निकलने के बाद 100 -140 दिन बाद फल तैयार हो जाते है जब फलियाँ की चारो घरियाँ तिकोनी न रहकर गोलाई लेकर पीली होने लगे तो फल पूर्ण विकसित होकर पकने लगते है इस दशा पर तेज धार वाले चाकू आदि के द्वारा घार को काटकर पौधे से अलग कर लेना चाहिएI
पकाने की विधि
केला की कटाई करने के बाद जो घार के फल होते है उनको पकाने की क्या विधि है किस प्रकार पकाया जाता है?
केले को पकाने के लिए घार को किसी बन्द कमरे में रखकर केले की पत्तियों से ढक देते है एक कोने में उपले अथवा अगीठी जलाकर रख देते है और कमरे को मिट्टी से सील बन्द कर देते है यह लगभग 48 से 72 घण्टे में कमरें केला पककर तैयार हो जाता हैI
उत्पादन
केला की खेती से प्रति हेक्टेयर कितनी पैदावार यानी की उपज प्राप्त कर सकते है? सभी तकनीकी तरीके अपनाने से की गई केले की खेती से 300 से 400 कुन्तल प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त होती है।
भूमि और रोपण के लिए आवश्यक सामग्री | निवेश (रु0 में) |
जमीन तैयार करना, गड्ढे करना और रोपण करना | 10,000 |
बाँस की बाड़ | 12,500 |
खाद का खर्च | 10,000 |
बोने की लागत | 25,000 |
स्प्रे उपकरण | 7,500 |
सिंचाई (पंप सेट और अन्य जरूरतें) | 12,500 |
निषेचन की कुल लागत | 45,125 |
कीटनाशकों की कुल लागत | 41,400 |
योग | 1,64,025 |
फल का अनुमानित उत्पादन प्रति हेक्टेयर 400 कुंतल
फल का अनुमानित रेट – 1000 रु0 प्रति कुंतल
कुल धनराशि – 4,00,000
कुल व्यय – 1,64,025
शुद्ध आय रु0 में – 2,35,975 प्रति हेक्टेयर
आलू
आलू की उन्नत खेती
आलू की फसल कम समय में किसानों को ज्यादा फायदा देती है, पर पुराने तरीके से खेती कर के किसान इस से ज्यादा से ज्यादा फायदा उठाने से चूक जाते हैं. आलू किसानों की खास नकदी फसल है. अन्य फसलों की तुलना में आलू की खेती कर के कम समय में ज्यादा मुनाफा कमाया जा सकता है. अगर किसान आलू की परंपरागत तरीके से खेती को छोड़ कर वैज्ञानिक तरीके से खेती करें तो पैदावार और मुनाफे को कई गुना बढ़ाया जा सकता है. वैज्ञानिक तकनीक से आलू की खेती करने पर प्रति एकड़ 4-5 लाख रुपए की सालाना आमदनी हो सकती है. आलू की अगेती फसल सितंबर के आखिरी सप्ताह से ले कर अक्तूबर के दूसरे सप्ताह तक और मुख्य फसल अक्तूबर के तीसरे सप्ताह से ले कर जनवरी के पहले सप्ताह तक लगाई जा सकती है. इस की खेती के लिए बलुई दोमट या दोमट मिट्टी काफी मुफीद होती है. अप्रैल से जुलाई बीच मिट्टी पलट हल से 1 बार जुताई कर ली जाती है. उस के बाद बोआई के समय फिर से मिट्टी पलट हल से जुताई कर ली जाती है. उस के बाद 2 या 3 बार हैरो द्वारा व अन्य उपकरणों से जुताई करने के बाद बोआई की जाती है.
जलवायु
आलू समशीतोष्ण जलवायु की फसल है। उत्तर प्रदेश में इसकी खेती उपोष्णीय जलवायु की दशाओं में रबी के मौसम में की जाती है। सामान्य रूप से अच्छी खेती के लिए फसल अवधि के दौरान दिन का तापमान 25-30 डिग्री सेल्सियस तथा रात्रि का तापमान 4-15 डिग्री सैल्सियस होना चाहिए। फसल में कन्द बनते समय लगभग 18-20 डिग्री सेल्सियस तापकम सर्वोत्तम होता है। कन्द बनने के पहले कुछ अधिक तापक्रम रहने पर फसल की वानस्पतिक वृद्धि अच्छी होती है, लेकिन कन्द बनने के समय अधिक तापक्रम होने पर कन्द बनना रूक जाता है। लगभग 30 डिग्री सैल्सियस से अधिक तापक्रम होने पर आलू की फसल में कन्द बनना बिलकुल बन्द हो जाता है।
भूमि एवं भूमि प्रबन्ध
आलू की फसल विभिन्न प्रकार की भूमि, जिसका पी.एच. मान 6 से 8 के मध्य हो, उगाई जा सकती है, लेकिन बलुई दोमट तथा दोमट उचित जल निकास की भूमि उपयुक्त होती है। 3-4 जुताई डिस्क हैरो या कल्टीवेटर से करें। प्रत्येक जुताई के बाद पाटा लगाने से ढेले टूट जाते हैं तथा नमी सुरक्षित रहती है। वर्तमान में रोटावेटर से भी खेत की तैयारी शीघ्र व अच्छी हो जाती है। आलू की अच्छी फसल के लिए बोने से पहले पलेवा करना चाहिए।
कार्बनिक खाद
यदि हरी खाद का प्रयोग न किया हो तो 15-30 टन प्रति है0 सड़ी गोबर की खाद प्रयोग करने से जीवांश पदार्थ की मात्रा बढ़ जाती है, जो कन्दों की पैदावार बढाने में सहायक होती है।
खाद तथा उर्वरक प्रबन्ध
सामान्य तौर पर 180 किग्रा० नत्रजन, 80 किग्रा० फास्फोरस तथा 100 किग्रा० पोटाश की संस्तुति की जाती है। मृदा विश्लेषण के आधार पर यह मात्रा घट-बढ़ सकती है। मिट्टी परीक्षण की संस्तुति के अनुसार अथवा 25 किग्रा० जिंक सल्फेट एवं 50 किग्रा० फेरस सल्फेट प्रति है. की दर से बुआई से पहले कम वाले क्षेत्रों में प्रयोग करना चाहिए तथा आवश्यक जिंक सल्फेट का छिड़काव भी किया जा सकता है।
बीज
उद्यान विभाग, उत्तर प्रदेश आलू का आधारीय प्रथम श्रेणी का बीज कृषकों में वितरण करता है। इस बीज को 3-4 वर्ष तक प्रयोग किया जा सकता है।
बोने के लिए 30-55 मिमी. व्यास का अंकुरित (चिटिंग) आलू बीज का प्रयोग करना चाहिए। एक हेक्टेयर के लिए 25-30 कुन्तल बीज की आवश्यकता पड़ती है। प्रजातियों का चयन क्षेत्रीय आवश्यकताओं एवं बुआई के समय यथा अगेती फसल, मुख्य फसल अथवा पिछेती फसलों के अनुसार किया जाना उचित होता है।
शीघ्र तैयार होने वाली किस्में :-
कूफरी चन्द्रमुखी :- यह 80-90 दिनों में तैयार हो जाती है। इसके कंद सफेद, अंडाकार तथा आंखे अधिक गहरी नहीं होती है । शीघ्र पकने के कारण पिछेती झूलसा रोग से प्रभावित नहीं होती है। उपज 250 क्विंटल प्रति हेक्टेयर प्राप्त होती है।
कूफरी जवाहर (जे.एच. 222) :- पिछेता झुलसा तथा फोम रोग विरोधक किस्म है। कंद सफेद, अण्डाकार मध्यम आकार के होते हैं। औसत उपज 240-300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर प्राप्त होती है।
मध्यम आकार से तैयार होने वाली किस्में :-
कुफरी बादशाह :- यह किस्म लगभग 90-100 दिन में तैयार हो जाती है इसके कंद बड़े आकार के सफेद तथा चपटी ऑखों वाली होती है। यह पिछेती झुलसर प्रतिरोधी किस्म है। पोल का प्रभाव कम होता है। उपज क्षमता 250-300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है । कंद खुदाई के बाद हरे हो जाते हैं।
कुफरी बहरा :- यह किस्म 90-100 दिन में तैयार हो जाता है। इसके कंद सफेद अंडाकार गोल और देखने में आकर्षक होते है। इसकी खेती के लिए कम तथा मध्यम शीत वाले क्षेत्र बहुत ही उपयुक्त हैं। उपज क्षमता 250-300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है ।
देर से तैयार होन वाली किस्म
कुफरी सिंदूरी :- 100 दिन में तैयार होने वाली लाल किस्म है। इसके आलू मध्यम आकार गूदा पीस ठोस, ओखे स्पू धसे हुई रहती है। उपज 300-350 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक प्राप्त होती है। भण्डारण क्षमता अच्छी होती है।
कुफरी चमत्कार – पौधे साधारण ऊंचे वाढ़युक्त पत्तियों का गहरा हरा रंग होता है। कंद का आकार साधारण बड़ा, गोलाकार सफेद, ऑखें साधारण गहरी तथा गूदे का रंग हल्का पीला होता है। 100-120 दिन में तैयार होकर 250 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है। यह किस्म अगेती झुलसा रोग के लिए अवरोधक है।
बुआई की विधि :- पौधों में कम फासला रखने से रोशनी पानी और पोषक तत्वों के लिए उनमें होड़ बढ़ जाती है। फलस्वरूप छोटे माप के आलू पैदा होते हैं। अधिक फासला रखने के प्रति हेक्टेयर में पौधों की संख्या कम हो जाती है, जिससे आलू का मान तो बढ़ जाता है परन्तु उपज घट जाती है। इसलिए कतारों और पौधों की दूरी में ऐसा संतुलन बनाना होता है कि न उपज कम हो और न आलू की माप कम हो। उचित माप के बीज के लिए पंक्तियों में 50 से.मी. का अन्तर व पौधों में 20 से 25 से.मी. की दूरी रखनी चाहिए ।
उपयुक्त माप के बीज का चुनाव :- आलू के बीज का आकार और उसकी उपज से लाभ का आपस में गहरा संबंध है। बड़े माप के बीजों से उपज तो अधिक होती है, परन्तु बीज की कीमत अधिक होने से पर्याप्त लाभ नहीं होता। बहुत छोटे माप का बीज सस्ता होगा परन्तु रोगाणुयुक्त आलू पैदा होने का खतरा बढ़ जाता है। प्रायः देखा गया है कि रोगयुक्त फसल में छोटे माप के बीज का अनुपात अधिक होता है। इसलिए अच्छे लाभ के लिए 3 से.मी. से 3.5 आकार या 30-40 ग्राम भार के लिए आलूओं को ही बीज के रूप में बोना चाहिए ।
बुआई समय एवं बीज की मात्रा :- उत्तर भारत में जहां पाला आम बात है, आलू को बढ़ने के लिए कम समय मिलता है। अगेती बुआई से बढ़वार के लिए लम्बा समय तो मिल जाता है परन्तु उपज अधिक नहीं होता, क्योंकि ऐसी अगेती फसल में बढ़वार व कन्द का बनना प्रतिकूल तापमान में होता है, साथ ही बीजों के अपूर्ण अंकुरण व सड़न भी बना रहता है। अतः उत्तर भारत में आलू की बुआई इस प्रकार करें कि आलू दिसम्बर के अंत तक पुरा बन जाए। उत्तर पश्चिम भागों में आलू की बुआई का उपयुक्त समय अक्टूबर माह का प्रथम पखवाड़ा है। पूर्वी भारत में आलू अक्टूबर के मध्य से जनवरी तक बोया जाता है। आलू की फसल में पंक्ति से पंक्ति की दूरी 50 से.मी. व पौध से पौध की दूरी 20-25 से.मी. होनी चाहिए। इसके लिए 25-30 क्विंटल बीज प्रति हैक्टेयर पर्याप्त होता है।
मिट्टी चढ़ाना :- मिट्टी चढ़ाने का कार्य बुवाई विधि पर निर्भर करता है। समतल भूमि में की गई बुवाई में 30-40 दिन बाद 1/3 नत्रजन की शेष मात्रा को कुड़ों में पौधे से दूर डालकर मिट्टी चढ़ायें । कंद के खुले रहने पर आलू के कंदो का रंग हरा हो जाता है, इसलिए आवश्यकता एवं समयानुसार कंदो को ढॅंकते रहें। आलू या अन्य कंद वाली फसलों में मिट्टी चढ़ाना एक महत्वपूर्ण क्रिया है, जो की भूमि को भुरभुरा बनाये रखने, खरपतवार नियंत्रण कंदो को हरा होने से रोकने एवं कंदो के विकास में सहायक होते है।
उर्वरक का प्रयोग :- फसल में प्रमुख तत्व अर्थात नत्रजन, फास्फोरस व पोटाश पर्याप्त मात्रा में डालें। नत्रजन से फसल की वानस्पति बढ़वार अधिक होती है, और पौधे के कंदमूल के आकार में भी वृद्धि होती है, परन्तु उपज की वृद्धि में कंदूमल के अलावा उनकी संख्या का अधिक प्रभाव पड़ता है। फसल के आरम्भिक विकास और वनास्पतिक भागों का शक्तिशाली बनाने में पोटाश सहायक होता है। इससे कंद के आकार व संख्या में बढ़ोतरी होती है। आलू की फसल में प्रति हैक्टेयर 120 कि.ग्रा. नत्रजन 80 कि.ग्रा., फास्फोरस और 80 कि.ग्रा. पोटाश डालनी चाहिए। उर्वरक की मात्रा मिट्टी की जांच के आधार पर निर्धारित करते है। बुआई के समय नत्रजन की आधी मात्रा तथा फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा डालनी चाहिए। नत्रजन की शेष् आधी मात्रा पौधो की लम्बाई 15 से 20 से.मी. होने पर पहली मिट्टी चढ़ाते रहना चाहिए।
आलू में सिंचाई :- आलू में हल्की लेकिन कई सिंचाई की आवश्यकता होती है, परन्तु खेत में पानी कभी भी भरा हुआ नहीं रहना चाहिए । खूड़ो या नालियों में मेड़ो की ऊॅंचाई के तीन चौथाई से अधिक ऊंचा पानी नहीं भरना चाहिए। पहली सिंचाई अधिकांश पौधे उग जाने के बाद करें व दूसरी सिंचाई उसके 15 दिन बाद आलू बनने व फूलने की अवस्था में करनी चाहिए। कंदमूल बनने व फूलने के समय पानी की कमी का उपज पर बूरा प्रभाव पड़ता है। इन अवस्थाओं में पानी 10 से 12 दिन के अन्तर पर दिया जाना चाहिए। पूर्वी भारत में मध्य से जनवरी तक बोई जाने वाली आलू की फसल में सिंचाई की उपर्युक्त मात्रा 50 से.मी. (6 से 7 सिंचाईयां) होती है।
पौध संरक्षण
नीदा नियंत्रण :- आलू की फसल में कभी भी खरपतवार न उगने दें। खरपतवार की प्रभावशाली रोकथाम के लिए बुआई के 7 दिनों के अन्दर, 0.5 डब्ल्यू.पी.या लिन्यूरोन का 700 लिटर पानी में घोल बनाकर प्रति हैक्टेयर के हिसाब से छिड़काव कर दें।
रोग नियंत्रण :
अगेती झुलसा :- यह रोग आलटरनेरिया सोलेनाई द्वारा उत्पन्न होते हैं। पत्तियों पर कोणीय पिरगलन धब्बो, अंडाकार या वृत्ताकार रूप में दिखाई देता है। धब्बे काले भुरे रंग के होते है। कंद पर भी दाग आ जाते हैं।
नियंत्रण के उपाय :- एगलाल से कंद उपचारित कर लगाये। जिनेब (0.2प्रतिशत) या डायएथेन जेड -78 (0.25 प्रतिशत) या डायथेन एम -45 (0.25 प्रतिशत) घोल का छिड़काव करें।
पिछेती झुलसा – रोग फाइटोप्थोरा इन्फेसटेन्स द्वारा उत्पन्न होता है। पत्तियों पर भूरे रंग के धब्बे दिखाई देते हैं। बाद में यह काले हो जाते है। पत्तियों की निचली सतह सफेद कपास जैसा बढ़ता हुआ दाग दिखाई देता है। ग्रसित कंदो पर हल्के भूरे रंग के दाग और भुरे चित्तीनुमा चिन्ह दिखाई पड़ते देता है। कभी – कभी बीमारी माहामारी का रूप् धारण कर लेती है।
नियंत्रण के उपाय :- डायथेन जेड – 78 (0.25 प्रतिशत) का उायथेन एम-45 (0.25 प्रतिशत) घोल का छिड़काव करें। रोग निरोधी किस्में लगाएं।
जीवाणु मुरझाना – यह रोग स्यूडोमोनास सोलैनैसियेरत जीवाणु के कारण होता है। पौधा तांबो रंग का होकर सूख जाता है।संक्रमित खेत में आलू न लगाएं। फसल चक्र अपनाएं। रोग ग्रसित पौधों को उखाड़ कर जला दें। कैल्शियम आक्साइड 125 किलो हेक्टेयर की दर के मिट्टी में मिलाएं।
विषाणू तथा माइकोप्लाज्मा रोग :- दो प्रकार के विषाणु आलू की फसल में विषाणू रोग फैलाते हैं। संस्पर्शी तथा फैलाये जाने वाले विषाणू रोगों से आलू के उत्पादन में अधिक हानि होती है।
नियंत्रण के उपाय :- कीटो की रोकथाम करें। मुख्य रूप से माहू तथा लीफ हॉपर। रोग प्रगट होने के पहले रोगोर डायमेथोएट या थायोडान 0.2 प्रतिशत का देना चाहिए । साथ ही रोगी पौधो को निकालकर नष्ट कर दें।
कीट नियंत्रण :
एफिड/माहू :- वयस्क तथा छोटे एफिड पत्तियों का रस चूसते हैं। इससे पत्तियां पीली नीचे की ओर मुड़ जाती है। इस कीट से हानि का मुख्य कारण यह है कि कीट विषाणु रोग फैलाने में सहायक होता है।
लीफहापर /जैसिड :- पत्तियों की निचली सतह पर रहकर रस चूसते हैं। ग्रसित पत्तियां पीली पड़ जाती हैं। यह कीट माइक्रोप्लाज्मा (वायरस रोग) फैलाने में सहायक होता है।
नियंत्रण के उपाय :- एफिड, जैसिड व हापर की रोकथाम के लिए बुवाई के समय थीमेट 10 जी 10-15 किलो प्रति हेक्टेयर बुवाई के समय उपयोग करें। डायमेथोएट या थायोडान 0.2 प्रतिशत का रोगर 0.1 से 0.15 प्रतिशत 15 दिन के अन्तराल पर छिड़काव करें।
कुटआ कीट :- यह कीट पौधों के बढ़ाने पर ही डंठलों को जमीन की सतह से ही काट देता है। ये कीट रात्रि में ज्यादातर क्रियाशील होते हैं। कंदो में भी छेद कर देता है, कंद बिक्री योग्य नहीं रहते।
नियंत्रण के उपाय :- थीमेट 10 जी 10-15 किलो प्रति हेक्टेयर की दर से उपयोग करें।
टयूबर मॉथ :- खेतों में इसके लारवा कोमल पत्तियों, डठलों और बाहर निकले हुए कंदो में छेद कर देते है। देशी भंडारों में इसके प्रकोप से अत्यधिक क्षति होती है।
नियंत्रण के उपाय :- थीमेट 10 जी का 10-15 किलो प्रति हेक्टेयर की दर से उपयोग करें। आलू को खेत में ढक कर रखें। देशी भण्डारण में आलू को शुष्क रेत से 3-4 से.मी. ढकने से नियंत्रण किया जा सकता है या संग्रहण में मिथाइल ब्रोमाइड धुमक उपयोग करें। शीत संग्रहण सर्वोत्तम है।
आलू कटाई या खुदाई :- पूरी तरह से पकी आलू की फसल की कटाई उस समय करनी चाहिए जब आलू कंदो के छिलके सख्त पड़ जाये। पूर्णतय पकी एवं अच्छी फसल से लगभग 300 प्रति कि्ंवटल प्रति हैक्टैयर उपज प्राप्त होती है।
खेती की सामग्री और श्रम | निवेश (रु0 में) |
भूमि की तैयारी पर व्यय | 12,000 |
कम्पोस्ट खाद पर व्यय | 9,000 |
बीज पर व्यय(20 कुं0 में X25) | 50,000 |
उर्वरक व रसायन पर व्यय | 20,000 |
बीज की बुबाई पर व्यय | 8,000 |
सिचाई पर व्यय | 16,000 |
निकाई व गुढ़ाई पर व्यय | 6,000 |
स्प्रे व उर्वरक आदि पर व्यय | 3,000 |
खुदाई पर व्यय | 20,000 |
पैकिंग पर व्यय | 6,000 |
अन्य व्यय | 8,000 |
कुल अनुमानित लागत | 1,58,000 |
अनुमानित उपज कुं0 में (300 कुं0 X दर कुं0 में 1200) | 3,60,000 |
व्यय धनराशि | 1,58,000 |
आलू से प्राप्त शुद्ध लाभ | 2,02,000 |
अमरुद से प्राप्त शुद्ध लाभ | 1,12,900 |
सहफसली से प्राप्त कुल लाभ | 3,14,900 |
फूलगोभी
फूलगोभी की खेती पूरे वर्ष में की जाती है। इससे किसान अत्याधिक लाभ उठा सकते है। इसको सब्जी, सूप और आचार के रूप में प्रयोग करते है। इसमे विटामिन बी पर्याप्त मात्रा के साथ-साथ प्रोटीन भी अन्य सब्जियों के तुलना में अधिक पायी जाती है गोभी वर्गीय सब्जियों में फूलगोभी का सबसे महत्वपूर्ण स्थान है| इसकी खेती मुख्य रूप से श्वेत, अविकसित व गठे हुए पुष्प पुंज के उत्पादन हेतु की जाती है| इसका उपयोग सब्जी, सूप, अचार, सलाद, बिरियानी, पकौड़ा आदि बनाने में किया जाता है| फूलगोभी साथ ही यह पाचन शक्ति को बढ़ाने में अत्यन्त लाभदायक है| यह प्रोटीन, कैल्शियम व विटामिन ए तथा सी का भी अच्छा स्त्रोत है| किसान बन्धु यदि इसकी खेती वैज्ञानिक तकनीक से करें, तो इसकी फसल से अधिकतम उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है|
उन्नतशील प्रजातियां
फूलगोभी की मौसम के आधार पर तीन प्रकार की प्रजातियाँ होती है। जैसे की अगेती, मध्यम और पछेती प्रजातियाँ पायी जाती हैं अगेती प्रजातियाँ पूसा दिपाली, अर्ली कुवारी, अर्ली पटना, पन्त गोभी- 2, पन्त गोभी- 3, पूसा कार्तिक, पूसा अर्ली सेन्थेटिक, पटना अगेती, सेलेक्सन 327 एवं सेलेक्सन 328 है। मध्यम प्रकार की प्रजातियाँ पन्त शुभ्रा, इम्प्रूव जापानी, हिसार 114, एस-1, नरेन्द्र गोभी 1, पंजाब जॉइंट ,अर्ली स्नोबाल, पूसा हाइब्रिड 2, पूसा अगहनी, एवं पटना मध्यम, आखिरी में पछेती प्रजातियाँ स्नोबाल 16, पूसा स्नोबाल 1, पूसा स्नोबाल 2, पूसा के 1, दानिया, स्नोकिंग, पूसा सेन्थेटिक, विश्व भारती, बनारसी मागी, जॉइंट स्नोबालढ्ढ उगाये जाने के समय के आधार पर फूलगोभी को विभिन्न वर्गों में बाँटा गया है| इसकी स्थानीय और उन्नत दोनों प्रकार की किस्में उगायी जाती है| इन किस्मों पर तापमान तथा प्रकाश अवधि का बहुत प्रभाव पड़ता है| इसलिए इसकी उचित किस्मों का चुनाव और समय पर बुवाई करना अत्यन्त आवश्यक है| यदि अगेती किस्म को देर से और पिछेती किस्म को जल्दी उगाया जायेगा तो दोनों में शाकीय वृद्धि अधिक होगी फलस्वरूप फूल छोटा हो जायेगा तथा फूल देर से लगेंगे| इस आधार पर फूलगोभी को तीन भागों में वर्गीकृत किया गया है, जैसे- अगेती, मध्यम और पिछेती|
अगेती किस्में– अर्ली कुंआरी, पूसा कतिकी, पूसा दीपाली, समर किंग, पावस और इम्पूब्ड जापानी आदि प्रमुख है|
मध्यम किस्में– पन्त शुभ्रा, पूसा शुभ्रा, पूसा सिन्थेटिक, पूसा स्नोबाल, के- 1, पूसा अगहनी, सैगनी और हिसार न- 1 आदि प्रमुख है|
पिछेती किस्में– पूसा स्नोबाल- 1, पूसा स्नोबाल- 2 और स्नोबाल- 16 आदि प्रमुख है|
जलवायु और भूमि
फूलगोभी की खेती प्राय: जुलाई से शुरू होकर अप्रैल तक होती हैढ्ढ इसके लिए भूमि हल्की से भारी मिट्टी तक में की जा सकती हैढ्ढ प्राय: दोमट और बलुई दोमट भूमि अत्यधिक उत्तम होती है इसकी सफल खेती के लिए ठंडी तथा आर्द्र जलवायु सर्वोत्तम होती है| अधिक ठंढा और पाले का प्रकोप होने से फूलों को अधिक नुकसान होता है| शाकीय वृद्धि के समय तापमान अनुकूल से कम रहने पर फूलों का आकार छोटा हो जाता है| अच्छी फसल के लिए 15 से 20 डिग्री तापमान सर्वोत्तम होता है|
खेती की तैयारी
खेत की पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करते है। इसके बाद दो तीन जुताई देशी हल या कल्टीवेटर से करने के बाद खेत में पाटा लगाकर समतल एवं भुरभुरा कर लेना चाहिए। खेत में पानी के निकास का उचित प्रबंध होना जरूरी है।
कैसे करें बीज बुवाई
एक हेक्टेयर खेत में 450 ग्राम से 500 ग्राम बीज की बुवाई करें। पहले 2 से 3 ग्राम कैप्टन या ब्रैसिकाल प्रति किलोग्राम बीज की दर से शोधित कर लेना चाहिए। इसके साथ ही साथ 160 से 175 मिली लीटर को 2.5 लीटर पानी में मिलकर प्रति पीस वर्ग मीटर के हिसाब नर्सरी में भूमि शोधन करना चाहिए।
फूलगोभी के बीज सीधे खेत में नहीं बोये जाते हैं| इसलिए बीज को पहले पौधशाला में बुवाई करके पौधा तैयार किया जाता है| एक हेक्टर क्षेत्र में प्रतिरोपण के लिए लगभग 75 से 100 वर्ग मीटर में पौधा उगाना पर्याप्त होता है| पौधों को खेत में प्रतिरोपण करने के पहले एक ग्राम स्टेप्टोसाइक्लिन को 8 लीटर पानी में घोलकर 30 मिनट तक डुबाकर उपचारित कर लें| फिर उपचारित पौधो को खेत में लगाना चाहिए|
अगेती फूलगोभी की खेती के समय के वर्षा अधिक नहीं होती है| इसलिए इसका रोपण कतार से कतार 40 सेंटीमीटर तथा पौधो से पौधो 30 सेंटीमीटर की दूरी पर करना चाहिए| परन्तु मध्यम तथा पिछेती किस्मों में कतार से कतार 45 से 60 सेंटीमीटर एवं पौधो से पौधो की दूरी 45 सेंटीमीटर रखनी चाहिए और ग्रीष्मकालीन के लिए कतार से कतार की दुरी 45 सेंटीमीटर और कतार में पौधे से पौधे की 30 सेंटीमीटर दुरी रखनी चाहिए|
फसल समय के अनुसार रोपाई एवं बुवाई की जाती है। जैसे अगेती में मध्य जून से जुलाई के प्रथम सप्ताह तक पौध डालकर पौध तैयार करके 45 सेन्टी मीटर पंक्ति से पंक्ति और 45 सेंटी मीटर पौधे से पौधे की दूरी पर पौध डालने के 30 दिन बाद रोपाई करनी चाहिए। मध्यम फसल में अगस्त के मध्य में पौध डालना चाहिए। पौध तैयार होने के बाद पौध डालने के 30 दिन बाद 50 सेंटी मीटर पंक्ति से पंक्ति और 50 सेन्टीमीटर पौधे से पौधे दूरी पर रोपाई करनी चाहिए। पिछेती फसल में मध्य अक्टूबर से मध्य नवम्बर तक पौध डाल देना चाहिए। 30 दिन बाद पौध तैयार होने पर रोपाई 60 सेन्टीमीटर पंक्ति से पंक्ति और 60 सेन्टीमीटर पौधे से पौधे की दूरी पर रोपाई करनी चाहिए।
बीज दर– अगेती किस्मों की बीज दर 600 से 700 ग्राम तथा मध्यम एवं पिछेती किस्मों की बीज दर 350 से 450 ग्राम प्रति हेक्टेयर है|
ग्रीष्मकालीन– ग्रीष्मकालीन फसल के लिए फरवरी से मार्च में पौधशाल में बीज की बुवाई की जाती है और मार्च से अप्रैल में पौध का मुख्य खेत में रोपण किया जाता है|
अगेती किस्म– अगेती किस्मों की फसल के लिए जून से जुलाई में पौधशाल में बीज की बुवाई की जाती है और जुलाई से अगस्त में पौध का मुख्य खेत में रोपण किया जाता है|
मध्यम किस्म– मध्यम किस्मों की फसल के लिए जुलाई से अगस्त में पौधशाल में बीज की बुवाई की जाती है और अगस्त से सितम्बर में पौध का मुख्य खेत में रोपण किया जाता है|
पिछेती किस्म– पछेती किस्मों की फसल के लिए सितम्बर से अक्टूबर में पौधशाल में बीज की बुवाई की जाती है और अक्टूबर से नवम्बर में पौध का मुख्य खेत में रोपण किया जाता है|
कैसे करें पौधे तैयार
स्वस्थ पौधे तैयार करने के लिए भूमि तैयार होने पर 0.75 मीटर चौड़ी, 5 से 10 मीटर लम्बी, 15 से 20 सेंटीमीटर ऊँची क्यारिया बना लेनी चाहिए। दो क्यारियों के बीच में 50 से 60 सेंटीमीटर चौड़ी नाली पानी देने तथा अन्य क्रियाओ करने के लिए रखनी चाहिए। पौध डालने से पहले 5 किलो ग्राम गोबर की खाद प्रति क्यारी मिला देनी चाहिए तथा 10 ग्राम म्यूरेट ऑफ़ पोटाश व 5 किलो यूरिया प्रति वर्ग मीटर के हिसाब से क्यारियों में मिला देना चाहिए। पौध 2.5 से 5 सेन्टीमीटर दूरी की कतारों में डालना चाहिए। क्यारियों में बीज बुवाई के बाद सड़ी गोबर की खाद से बीज को ढक देना चाहिए। इसके 1 से 2 दिन बाद नालियों में पानी लगा देना चाहिए या हजारे से पानी क्यारियों देना चाहिए।
सिंचाई प्रबन्धन
पौधों की अच्छी बढवार के लिए मिट्टी में पर्याप्त मात्रा में नमी का होना अत्यन्त आवश्यक है| सितम्बर के बाद 10 या 15 दिनों के अन्तराल पर आवश्यकतानुसार सिंचाई करते रहना चाहिए| ग्रीष्म ऋतु में 5 से 7 दिनों के अन्तर पर सिंचाई करें|
खरपतवार नियंत्रण
फूलगोभी में फूल तैयार होने तक दो से तीन निराई-गुड़ाई से खरपतवार पर नियंत्रण हो जाता है, परन्तु व्यवसाय के रूप में खेती के लिए खरपतवारनाशी दवा पेंडीमेथिलीन 3.0 लीटर को 1000 लीटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव रोपण के पहले काफी लाभदायक होता है|
निराई–गुड़ाई और मिट्टी चढ़ाना
फूलगोभी के पौधों की जड़ों के समुचित विकास के लिए निराई-गुड़ाई अत्यन्त आवश्यक है| इस क्रिया से जड़ों के आसपास की मिट्टी ढीली हो जाती है तथा हवा का आवागमन अच्छी तरह से होता है, जिसका अनुकूल प्रभाव उपज पर पड़ता है| वर्षा ऋतु में यदि जड़ों के पास से मिट्टी हट गयी हो तो चारों तरफ से पौधों में मिट्टी चढ़ा देना चाहिए|
सूक्ष्म तत्वों का महत्व
बोरन– बोरन की कमी से फूलगोभी का खाने वाला भाग छोटा रह जाता है| इसकी कमी से शुरू में तो फूलगोभी पर छोटे-छोटे दाग या धब्बे दिखाई पड़ने लगते हैं एवं बाद में पूरा का पूरा फूल हल्का गुलाबी पीला या भूरे रंग का हो जाता है, जो खाने में कडुवा लगता है| फूलगोभी और फूल का तना खोखला हो जाता है तथा फट जाता हैं| इससे फूलगोभी की पैदावार और गुणवता दोनों में कमी आ जाती है| इसकी रोकथाम के लिए बोरेक्स 10 से 15 किलोग्राम प्रति हेक्टर की दर से अन्य उर्वरक के साथ खेत में डालना चाहिए|
मॉलीब्डेनम– इस सूक्ष्म तत्व की कमी से फूलगोभी का रंग गहरा हरा हो जाता है तथा किनारे से सफेद होने लगती है, जो बाद में मुरझाकर गिर जाती है| इससे बचाव के लिए 1. 0 से 1.50 किलोग्राम मॉलीब्डेनम प्रति हेक्टर की दर से मिट्टी में मिला देना चाहिए| इससे फूलगोभी का खाने वाला भाग अर्थात फल पूर्ण आकृति को ग्रहण कर ले और रंग श्वेत अर्थात उजला तथा चमकदार हो जाय तो पौधों की कटाई कर लेना चाहिए| देर से कटाई करने पर रंग पीला पड़ने लगता है और फूल फटने लगते हैं| जिससे बाजार मूल्य घट जाता है|
प्रमुख कीट एवं रोकथाम
फूलगोभी में मुख्य रूप से लाही, गोभी मक्खी, हीरक पृष्ठ कीट, तम्बाकू की सूड़ी आदि कीड़ों का प्रकोप होता है| लाही कोमल पत्तियों का रस चूसती है| खासकर सर्दी के समय कुहासा या बदली लगी रहे तो इसका आक्रमण अधिक होता है| गोभी मक्खी पत्तियों में छेदकर अधिक मात्रा में खा जाती है| हीरक पृष्ठ कीट की सूड़ी पत्तियों की निचली सतह पर खाते हैं तथा छोटे छिद्र बना लेते हैं| जब इसका प्रकोप अधिक होता है, तो छोटे पौधों की पत्तियाँ बिल्कुल समाप्त हो जाती है, जिससे पौधे मर जाते हैं| तम्बाकू की सूड़ी के वयस्क मादा कीट पत्तियों की निचली सतह पर झुण्ड में अण्डे देती है| 4 से 5 दिनों के बाद अण्डों से सूड़ी निकलती है और पत्तियों को खा जाती है| सितम्बर से नवम्बर तक इसका प्रकोप अधिक होता है|
उपरोक्त सभी कीटों का जैसे ही आक्रमण शुरू हो तो नुवाक्रान, रोगर, थायोडान किसी भी कीटनाशी दवा का 1.5 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में घोल कर आवश्यकतानुसार छिड़काव करना चाहिए|
रोग एवं नियंत्रण
फूलगोभी में मुख्य रूप से गलन रोग, काला विगलन, पर्णचित्ती, अंगमारी, पत्ती का धब्बा रोग और मृदु रोमिल आसिता रोग लगते हैं| यह फफूंदी के कारण होता है| यह रोग पौधा से फूल बनने तक कभी भी लग सकते है| पत्तियों की निचली सतह पर जहाँ फफूंद दिखते हैं उन्हीं के ऊपर पत्तियों के ऊपरी सतह पर भूरे धब्बे बनते हैं| जो कि रोग के तीव्र हो जाने पर आपस में मिलकर बड़े धब्बे बन जाते हैं| काला गलन नामक रोग भी काफी नुकसानदायक होता है| रोग का प्रारंभिक लक्षण ‘ट’ आकार में पीलापन लिये होता है| रोग का लक्षण पत्ती के किसी किनारे या केन्द्रीय भाग से शुरू हो सकता है, यह बैक्टीरिया के कारण होता है|
उपरोक्त रोगों से बचाव के लिए रोपाई के समय पौधों को स्ट्रेप्टोमाइसीन या प्लेन्टोमाइसीन के घोल से उपचारित कर ही खेत में लगाना चाहिए| दवा की मात्रा आधा ग्राम दवा + 1 लीटर पानी बाकी सभी रोगों से बचाव के लिए फफूदीनाशक दवा इन्डोफिल एम- 45 की 2 ग्राम या ब्लाइटाक्स की 3 ग्राम मात्रा को 1 लीटर पानी में दर से घोल कर आवश्यकतानुसार छिड़काव करना चाहिए|
फल कटाई
फूलगोभी कि कटाई तब करें जब उसके फल पूर्ण रूप से विक़सित हो जाएँ, फल ठोस तथा आकर्षक होने चाहिए| फूलगोभी कि किस्मों के अनुसार रोपाई के बाद अगेती 60 से 70 दिन, मध्यम 90 से 100 दिन और पछेती 110 से 180 दिन में कटाई के लिए तैयार हो जाती है|
पैदावार
उपरोक्त तकनीक द्वारा फूलगोभी की खेती करने से प्रति हेक्टेयर 150 से 250 क्विंटल तक पैदावार मिल जाती है|
भण्डारण– फलों के साथ पत्तियां लगे रहने पर 85 से 90 प्रतिशत की आद्रता के साथ और 14 से 22 डिग्री सेल्सियस तापमान पर इन्हें एक महीने तक रखा जा सकता है|
खेती की सामग्री और श्रम | निवेश (रु0 में) |
भूमि की तैयारी पर व्यय | 12,000 |
कम्पोस्ट खाद पर व्यय | 9,000 |
बीज पर व्यय(300 ग्रा0 से 370 ग्रा0 प्रति हे0) | 8,000 |
उर्वरक व रसायन पर व्यय | 16,000 |
बीज की बुबाई पर व्यय | 2,000 |
पौध की रोपाई | 10,000 |
सिचाई पर व्यय | 12,000 |
निकाई व गुढ़ाई पर व्यय | 12,000 |
पौधे को सहारा देने पर व्यय | 20,000 |
स्प्रे व उर्वरक आदि पर व्यय | 4,000 |
फलो की तुड़ाई पर व्यय | 16,000 |
पैकिंग पर व्यय | 6,000 |
अन्य व्यय | 8,000 |
कुल अनुमानित लागत | 1,35,000 |
अनुमानित उपज कुं0 में (300 कुं0 X दर कुं0 में 1200) | 3,60,000 |
व्यय धनराशि | 1,35,000 |
फूलगोभी से प्राप्त शुद्ध लाभ | 2,25,000 |
केला से प्राप्त शुद्ध लाभ | 1,64,025 |
सहफसली से प्राप्त कुल लाभ | 3,89,025 |
मधुमक्खी पालन
कृषि क्रियाए लघु व्यवसाय से बड़े व्यवसाय में बदलती जा रही है कृषि और बगवानी उत्पादन बढ़ रहा है। जबकि कुल कृषि योग्य भूमि घट रही है। कृषि के विकास के लिए फसल, सब्जियां और फलो के भरपूर उत्पादन के अतिरिक्त दुसरे व्यवसायों से अच्छी आय भी जरुरी है। मधुमक्खी पालन एक ऐसा ही व्यवसाय है जो मानव जाती को लाभान्वित कर रहा है यह एक कम खर्चीला घरेलु उद्योग है जिसमे आय, रोजगार व वातावरण शुद्ध रखने की क्षमता है यह एक ऐसा रोजगार है जिसे समाज के हर वर्ग के लोग अपना कर लाभान्वित हो सकते है। मधुमक्खी पालन कृषि व बागवानी उत्पादन बढ़ाने की क्षमता भी रखता है। मधुमक्खियां मोन समुदाय में रहने वाली कीटों वर्ग की जंगली जीव है इन्हें उनकी आदतों के अनुकूल कृत्रिम ग्रह (हईव) में पाल कर उनकी वृधि करने तथा शहद एवं मोम आदि प्राप्त करने को मधुमक्खी पालन या मौन पालन कहते है । शहद एवं मोम के अतिरिक्त अन्य पदार्थ, जैसे गोंद (प्रोपोलिस, रायल जेली, डंक-विष) भी प्राप्त होते है। साथ ही मधुमक्खियों से फूलों में परप्रगन होने के कारण फसलो की उपज में लगभग एक चैथाई अतिरिक्त बढ़ोतरी हो जाती है। आज कल मधुमक्खी पालन ने कम लगत वाला कुटीर उद्योग का दर्जा ले लिया है। ग्रामीण भूमिहीन बेरोजगार किसानो के लिए आमदनी का एक साधन बन गया है मधुमक्खी पालन से जुड़े कार्य जैसे बढईगिरी, लोहारगीरी एवं शहद विपणन में भी रोजगार का अवसर मिलता है ।
मधुमक्खी परिवार : एक परिवार में एक रानी कई हजार कमेरी तथा 100-200 नर होते है ।
रानी : यह पूर्ण विकसित मादा होती है एवं परिवार की जननी होती है। रानी मधुमक्खी का कार्य अंडे देना है अछे पोषण वातावरण में एक इटैलियन जाती की रानी एक दिन में 1500-1700 अंडे देती है। तथा देशी मक्खी करीब 700-1000 अंडे देती है। इसकी उम्र औसतन 2-3 वर्ष होती है।
कमेरी/श्रमिक : यह अपूर्ण मादा होती है और मौनगृह के सभी कार्य जैसे अण्डों बच्चों का पालन पोषण करना, फलों तथा पानी के स्त्रोतों का पता लगाना, पराग एवं रस एकत्र करना , परिवार तथा छतो की देखभाल, शत्रुओं से रक्षा करना इत्यादि इसकी उम्र लगभग 2-3 महीने होती है।
नर मधुमक्खी / निखट्टू : यह रानी से छोटी एवं कमेरी से बड़ी होती है। रानी मधुमक्खी के साथ सम्भोग के सिवा यह कोई कार्य नही करती सम्भोग के तुरंत बाद इनकी मृत्यु हो जाती है और इनकी औसत आयु करीब 60 दिन की होती है।
मधुमक्खियों की किस्मे : भारत में मुख्या रूप से मधुमक्खी की चार प्रजातियाँ पाई जाती है:
छोटी मधुमक्खी (एपिस फ्लोरिय), भैंरो या पहाड़ी मधुमक्खी ( एपिस डोरसाटा), देशी मधुमक्खी (एपिस सिराना इंडिका) तथा इटैलियन या यूरोपियन मधुमक्खी (एपिस मेलिफेरा)। इनमे से एपिस सिराना इंडिका व एपिस मेलिफेरा जाती की मधुमक्खियों को आसानी से लकड़ी के बक्सों में पला जा सकत है। देशी मधुमक्खी प्रतिवर्ष औसतन 5-10 किलोग्राम शहद प्रति परिवार तथा इटैलियन मधुमक्खी 50 किलोग्राम तक शहद उत्पादन करती हैं।
मधुमक्खी पालन के लिए अवश्यक सामग्री : मौन पेटिका, मधु निष्कासन यंत्र, स्टैंड, छीलन छुरी, छत्ताधार, रानी रोक पट, हाईवे टूल (खुरपी), रानी रोक द्वार, नकाब, रानी कोष्ठ रक्षण यंत्र, दस्ताने, भोजन पात्र, धुआंकर और ब्रुश.
मधुमक्खी परिवार का उचित रखरखाव एवं प्रबंधन : मधुमक्खी परिवारों की सामान्य गतिविधियाँ 100 और 370 सेंटीग्रेट की बीच में होती है उचित प्रबंध द्वारा प्रतिकूल परिस्तिथियों में इनका बचाव आवश्यक हैं। उतम रखरखाव से परिवार शक्तिशाली एवं क्रियाशील बनाये रखे जा सकते है। मधुमक्खी परिवार को विभिन्न प्रकार के रोगों एवं शत्रुओं का प्रकोप समय समय पर होता रहता है। जिनका निदान उचित प्रबंधन द्वारा किया जा सकता है इन स्तिथियों को ध्यान में रखते हुए निम्न प्रकार वार्षिक प्रबंधन करना चाहिये।
शरदऋतु में मधुवाटिका का प्रबंधन : शरद ऋतु में विशेष रूप से अधिक ठंढ पड़ती है जिससे तापमान कभी कभी 10 या 20 सेन्टीग्रेट से निचे तक चला जाता है। ऐसे में मौन वंशो को सर्दी से बचाना जरुरी हो जाता है। सर्दी से बचने के लिए मौनपालको को टाट की बोरी का दो तह बनाकर आंतरिक ढक्कन के निचे बिछा देना चाहिए। यह कार्य अक्टूबर में करना चाहिये। इससे मौन गृह का तापमान एक समान गर्म बना रहता है। यह संभव हो तो पोलीथिन से प्रवेश द्वार को छोड़कर पूरे बक्से को ढक देना चाहिए। या घास फूस या पुवाल का छापर टाट बना कर बक्सों को ढक देना चाहिए ।
इस समय मौन गृहों को ऐसे स्थान पर रखना चाहिये। जहाँ जमीं सुखी हो तथा दिन भर धुप रहती हो परिणामस्वरूप मधुमक्खियाँ अधिक समय तक कार्य करेगी अक्टूबर में यह देख लेना चाहिये। की रानी अच्छी हो तथा एक साल से अधिक पुरानी तो नही है यदि ऐसा है तो उस वंस को नई रानी दे देना चाहिये। जिससे शरद ऋतु में श्रमिको की आवश्यक बनी रहे जिससे मौन वंस कमजोर न हो ऐसे क्षेत्र जहाँ शीतलहर चलती हो तो इसके प्रारम्भ होने से पूर्व ही यह निश्चित कर लेना चाहिये। की मौन गृह में आवश्यक मात्रा में शहद और पराग है या नही ।
यदि शहद कम है नही है तो मौन वंशों को 50रू 50 के अनुपात में चीनी और पानी का घोल बनाकर उबालकर ठंडा होने के पश्चात मौन गृहों के अंदर रख देना चाहिये। जिससे मौनो को भोजन की कमी न हो । यदि मौन गृह पुराने हो गये हो या टूट गये हो तो उनकी मरम्मत अक्टूबर नवम्बर तक अवश्य करा लेना चाहिए। जिससे इनको सर्दियों से बचाया जा सके। इस समय मौन वंसो को फुल वाले स्थान पर रखना चाहिये। जिससे कम समय में अधिक से अधिक मकरंद और पराग एकत्र किया जा सके ज्यादा ठंढ होने पर मौन गृहों को नही खोलना चाहिए। क्योंकि ऐसा करने पर ठण्ड लगने से शिशु मक्खियों के मरने का डर रहता है। साथ ही श्रमिक मधुमक्खियाँ डंक मरने लगती है पर्वतीय क्षेत्रो में अधिक ऊंचाई वाले स्थानों पर गेहूं के भूंसे या धान के पुवाल से अच्छी तरह मौन गृह को ढक देना चाहिए।
बसंत ऋतु में मौन प्रबंधन : बसंत ऋतु मधुमक्खियों और मौन पालको के लिए सबसे अच्छी मानी जाती है। इस समय सभी स्थानों में प्रयाप्त मात्रा में पराग और मकरंद उपलब्ध रहते है जिससे मौनों की संख्या दुगनी बढ़ जाती है। परिणामस्वरूप शहद का उत्पादन भी बढ़ जाता है। इस समय देख रेख की आवश्यकता उतनी ही पड़ती है जितनी अन्य मौसमो में होती है शरद ऋतु समाप्त होने पर धीरे धीरे मौन गृह की पैकिंग ( टाट, पट्टी और पुरल के छापर इत्यादि) हटा देना चाहिए। मौन गृहों को खाली कर उनकी अच्छी तरह से खाली कर उनकी अच्छी तरह से सफाई कर लेना चाहिए। पेंदी पर लगे मौन को भलीभांति खुरच कर हट देना चाहिए संम्भव हो तो 500 ग्राम का प्रयोग दरारों में करना चाहिए जिससे कि माईट को मारा जा सके। मौन गृहों पर बहार से सफेद पेंट लगा देना चाहिए। जिससे बहार से आने वाली गर्मी में मौन गृहों का तापमान कम रह सके ।
बसंत ऋतु प्रारम्भ में मौन वंशो को कृत्रिम भोजन देने से उनकी संख्या और क्षमता बढती है। जिससे अधिक से अधिक उत्पादन लिया जा सके। रानी यदि पुरानि हो गयी हो तो उसे मरकर अंडे वाला फ्रेम दे देना चाहिए। जिससे दुसरे वाला सृजन शुरू कर दे यदि मौन गृह में मौन की संख्या बढ़ गयी हों तो मोम लगा हुआ अतिरिक्त फ्रेम देना चाहिए। जिससे की मधुमक्खियाँ छत्ते बना सके यदि छत्तों में शहद भर गया हो तो मधु निष्कासन यंत्र से शहद को निकल लेना चाहिए। जिससे मधुमक्खियां अधिक क्षमता के साथ कार्य कर सके यदि नरो की संख्या बढ़ गयी हो तो नर प्रपंच लगा कर इनकी संख्या को नियंत्रित कर देना चाहिए।
ग्रीष्म ऋतु में मौन प्रबंधन : ग्रीष्म ऋतु में मौनो की देख भाल ज्यादा जरुरी होता है जिन क्षेत्रो में तापमान 400 सेंटीग्रेट से उपर तक पहुचना है। वहां पर मौन गृहों को किसी छायादार स्थान पर रखना चाहिए। लेकिन सुबह की सूर्य की रौशनी मौन गृहों पर पदनी आवश्यक है जिससे मधुमक्खियाँ सुबह से ही सक्रीय होकर अपना कार्य करना प्रारम्भ कर सके इस समय कुछ स्थानों जहाँ पर बरसीम, सूर्यमुखी इत्यादि की खेती होती है। वहां पर मधुस्त्रव का समय भी हो सकता है। जिससे शहद उत्पदान किया जा सकता है । इस समय मधुमक्खियों को साफ और बहते हुए पानी की आवश्यकता होती है। इसलिए पानी को उचित व्यवस्था मधुवातिका के आस पास होना चाहिये मौनो को लू से बचने के लिए छ्प्पर का प्रयोग करना चाहिये जिससे गर्म हवा सीधे मौन गृहों के अंदर न घुस सके अतिरिक्त फ्रेम को बाहर निकल कर उचित भण्डारण करना चाहिये।
जिससे मोमी पतंगा के प्रकोप से बचाया जा सके मौन वाटिका में यदि छायादार स्थान न हो तो बक्से के उपर छप्पर या पुआल डालकर उसे सुबह शाम भिगोते रहना चाहिये। जिससे मौन गृह का तापमान कम बना रहे कृत्रिम भोजन के रूप में 50रू 50 के अनुपात में चीनी और पानी के उबल कर ठंडा होने अपर मौन गृह के अंदर कटोरी या फीडर में रखना चाहिये। मौन गृह के स्टैंड की कटोरियों में प्रतिदिन साफ और तजा पानी डालना चाहिए। यदि मौनो की संख्या ज्यादा बढ़ने लगे तो अतिरिक्त फ्रेम डालना चाहिए।
वर्षा ऋतु में मौन प्रबंधन: वर्षा ऋतु में तेज वर्षा, हवा और शत्रुओं जैसे चींटियाँ, मोमी पतंगा, पक्षियों का प्रकोप होता है मोमि पतंगों के प्रकोप को रोकने के लिए छतो को हटा दे फ्लोर बोड को साफ करे तथा गंधक पाउडर छिडके चीटो को रोकथाम के लिए स्टैंड को पानी भरा बर्तन में रखे तथा पानी में दो तिन बूंदें काले तेल की डाले मोमी पतंगों से प्रभावित छत्ते, पुराने काले छत्ते एवं फफूंद लगे छत्तों को निकल कर अलग कर देना चाहिए।
मधुमक्खी परिवारों का विभाजन एवं जोड़ना :
विभाजन: अच्छे मौसम में मधुमक्खियों की संख्या बढती है तो मधुमक्खी परिवारों का विभाजन करना चाहिये। ऐसा न किये जाने पर मक्खियाँ घर छोड़कर भाग सकती है। विभाजन के लिए मूल परिवार के पास दूसरा खाली बक्सा रखे तथा मूल मधुमक्खी परिवार से 50 प्रतिशत ब्रुड, शहद व पराग वाले फ्रेम रखे रानी वाला फ्रेम भी नये बक्से में रखे मूल बक्से में यदि रानी कोष्ठ हो तो अच्छा है अन्यथा कमेरी मक्खियाँ स्वयं रानी कोष्ठक बना लेगी तथा 16 दिन बाद रानी बन जाएगी। दोनों बक्सों को रोज एक फीट एक दुसरे से दूर करते जाये और नया बक्सा तैयार हो जायेगा।
जोड़ना: जब मधुमाखी परिवार कमजोर हो और रानी रहित हो तो ऐसे परिवार को दुसरे परिवार में जोड़ दिया जाता है। इसके लिए एक अखबार में छोटे छोटे छेद बनाकर रानी वाले परिवार के शिशु खण्ड के उपर रख लेते है। तथा मिलाने वाले परिवार के फ्रेम एक सुपर में लगाकर इसे रानी वाले परिवार के उपर रख दिया जाता है। अखबार के उपर थोडा शहद छिडक दिया जाता है जिससे 10-12 घंटों में दोनों परिवारों की गंध आपस में मिल जाती है। बाद में सुपर और अखबार को हटाकर फ्रेमो को शिशु खण्ड में रखा जाता है।
मधुमक्खी परिवार स्थानान्तरण:
मधुमक्खी परिवार का स्थानान्तरण करते समय निम्न सुचनाए ध्यान रखें-
1- स्थानांतरण की जगह पहले से ही सुनिश्चित करें ।
2- स्थानांतरण की जगह दुरी पर हो तो मौन गृह में भोजन का प्रयाप्त व्यवस्था करें ।
3- प्रवेश द्वार पर लोहे की जाली लगा दें तथा छत्तों में अधिक शहद हो तो उसे निकल लें और बक्सो को बोरी से कील लगाकर सील कर दें।
4- बक्सों को गाड़ी में लम्बाई की दिशा में रखें तथा परिवहन में कम से कम झटके लें ताकि छत्ते में क्षति न पहुचे ।
5- गर्मी में स्थनान्तरण करते समय बक्सों के उपर पानी छिडकते रहे और यात्रा रत के समय ही करें।
6- नई जगह पर बक्सों को लगभग 7-10 फुट की दुरी पर तथा मुंह पूर्व -पश्चिम दिशा की तरफ रखें ।
7- पहले दिन बक्सों की निरिक्षण न करें दुसरे दिन धुंआ देने के बाद मक्खियाँ की जाँच करनी चाहिये तथा सफाई कर देनी चाहिए।
शहद व मोम निष्कासन व प्रसंस्करण: मधुमक्खी पालन का मुख्य उद्देश्य शहद एवं मोम उत्पादन करना होता है। बक्सों में स्थित छत्तों में 75-70 प्रतिशत कोष्ठ मक्खियों द्वारा मोमी टोपी से बंद कर देने पर उनसे शहद निकाला जाए इन बंद कोष्ठों से निकाला गया शहद परिपक्व होता है। बिना मोमी टोपी के बंद कोष्ठों का शहद अपरिपक्व होता है जिनमे पानी की मात्रता अधिक होती है। मधु निष्कासन का कार्य साफ मौसम में दिन में छत्तों के चुनाव से आरम्भ करके शाम के समय शहद निष्कासन प्रक्रिया आरम्भ करना चाहिए। अन्यथा मखियाँ इस कार्य में बाधा उत्पन्न करती है।
यूरोपियन फाउलबु्रड : यह एक जीवाणु मैलिसोकोकस प्ल्युटान से होने वाला एक संक्रामक रोग है। इसका रंग गहरा होता है तथा इनसे प्रौढ़ मक्खी भी नही निकलती है। इस बीमारी की पहचान के लिए एक माचिस की तिल्ली को लेकर मरे हुए डिम्भक के शरीर में चुभोकर बहर की ओर खींचने पर एक धान्गनुमा संरचना बनती है। जिसके आधर पर इस बीमारी की पहचान की जा सकती है ।
रोकथाम : प्रभावित वंशो को मधु वाटिका से अलग कर देना चाहिए प्रभावित वंशों के फ्रेम और अन्य समान का संपर्क किसी दुसरे स्वस्थ वंश से नही होने देना चाहिए। प्रभावित मौन वंश को रानी विहीन कर देना चाहिये। तथा कुछ महीनो बाद रानी देना चाहिये। संक्रमित छत्तों का इस्तेमाल नही करना चाहिय। बल्कि उन्हें पिघलाकर मोम बना देना चाहिए संक्रमित वंशो को टेरामईसिन की 240 मि.लि.ग्रा. मात्रा प्रति 5 लिटर चीनी के घोल के साथ ओक्सीटेट्रासईक्लिन 6-25 मि.ग्रा. प्रति गैलन के हिसाब से देना चाहिये।
अमेरिकन फाउलबु्रड : यह भी एक जीवाणु बैसिलस लारवी के द्वारा होने वाला एक संक्रामक रोग है। जो यूरोपियन फाउलवूड के समान होता है यह बीमारी कोष्ठक बंद होने के पहले ही लगती है जिसे कोष्ठक बंद ही नही होते यदि बंद भी हो जाते है तो उनके ढक्कन में छिद्र देखे जा सकते है। इसके अंदर मर हुआ डीम्भक भी देखा जा सकता है। जिससे सडी हुई मछली जैसी दुर्गन्ध आती है इनका आक्रमण गर्मियों में या उसके बाद होता है।
रोकथाम : प्रभावित वंशो को मधु वाटिका से अलग कर देना चाहिए प्रभावित वंशों के फ्रेम और अन्य समान का संपर्क किसी दुसरे स्वस्थ वंश से नही होने देना चाहिए। प्रभावित मौन वंश को रानी विहीन कर देना चाहिये। तथा कुछ महीनो बाद रानी देना चाहिये। संक्रमित छत्तों का इस्तेमाल नही करना चाहिय। बल्कि उन्हें पिघलाकर मोम बना देना चाहिए संक्रमित वंशो को टेरामईसिन की 240 मि.लि.ग्रा. मात्रा प्रति 5 लिटर चीनी के घोल के साथ ओक्सीटेट्रासईक्लिन 6-25 मि.ग्रा. प्रति गैलन के हिसाब से देना चाहिये।
नोसेमा रोग : यह एक प्रोटोजवा नोसेमा एपिस से होता है इस बीमारी से मधुमक्खियो की पहचान व्यवस्था बिगड़ जाती है। रोगग्रसित मधुमक्खियाँ पराग की अपेक्षा केवल मकरंद ही एकत्र करना पसंद करती है। ग्रसित रानी नर सदस्य ही पैदा करती है तथा कुछ समय बाद मर भी सकती है। जब मधुमक्खियों में पेचिस, थकान, रेंगने तथा बाहर समूह बनाने जैसे लक्षण दिखे तो इस रोग का प्रकोप समझना चाहिए।
रोकथाम : फ्युमिजिलिन-बी का 0-5 से 6 मि.ग्रा. मात्रा प्रति 100 मि.लि. घोल के साथ मिला कर देना चाहिए। वाईसईकलो हेक्साईल अमोनियम प्युमिजिल भी प्रभावकारी औषध है।
सैकब्रूड : यह रोग भारतीय मौन प्रजातियों में बहुतायात में पाया जाता है। यह एक विषाणु जनित रोग है जो संक्रमण से फैलता है। संक्रमित वंशों के कोष्ठको में डिम्भक खुले अवस्था में ही मर जाते है। या बंद कोष्ठको में दो छिद्र बने होते है इससे ग्रसित डिम्भको का रंग हल्का पिला होता है अंत में इसमें थैलिनुमा आकृति बन जाती है।
रोकथाम : एक बार इस बिमरी का संक्रमण होने के बाद इसकी रोकथाम बहुत कठिन हो जाती है। इसका कोई कारगर उपोय नही है संक्रमण होने पर प्रभावित वंशों को मधु वाटिका से हटा देना चाहिए। तथा संक्रमित वंशो में प्रयुक्त औजारो या मौन्ग्रिः का कोई भी भाग दुसरे वंशो तक नही ले जाने देना चाहिए। वंशो को कुछ समय रानी विहीन कर देना चाहिए। टेरामईसिन की 250 मि. ग्रा. मात्रा प्रति 4 लिटर चीनी के घोल में मिलकर खिलाया जाये तो रोग का नियंत्रण हो जाता है। गंभीर रूप से प्रभावित वंशो को नष्ट कर देना चाहिए।
एकेराईन : यह आठ पैरो वाला बहुत ही छोटा जीव है जो कई तरह से मधुमक्खियों को नुकसान पहुंचता है। इस रोग में श्रमिक मधुमक्खियाँ मौन गृह के बहर एकत्रित होती है। इनके पंख कमजोर हो जाते है जिससे ये उड़ नही पाती है या उड़ते उड़ते गिर जाती है। और दोबारा नही उड़ पाती है इसका प्रकोप होने पर संक्रमित वंशों को अलग कर गंधक का धुंआ देना चाहिए। गंधक की 200 मि. ग्रा. मात्रा प्रति फ्रेम के हिसाब से बुरकाव करना चाहिए। डिमाईट या क्लोरोबेन्जिलेट जो क्रमशः पीके और फल्बेकस के नाम से बाजार में आता है को धुंए के रूप में देना चाहिए।
वरोआ माईट : सर्वप्रथम यह माईट भारतीय मौन में ही प्रकाश में आई थी लेकिन अब यह मेलिफेरा में भी देखी जाती है। इसका आकार 1.2 से 1.6 मि.मी. है यह बाह्यपरजीवी है जो वक्ष और उदर के बिच से मौन का रक्त चुसती है मादा माईट कोष्ठक बंद होने से पहले ही इसमें घुसकर 2 से 5 अंडे देती है जिससे 24 घंटे में शिशु लारवा निकलता है तथा 48 घंटे में यह प्रोटोनिम्फ में बदल जाता है ।
नियंत्रण : फार्मिक एसिड की 5 मि.लि. प्रतिदिन तलपट में लगाने से इसका नियंत्रण हो जाता है। अन्य उपाय इकेरमाईट के तरह ही करनी चाहिए।
मोमी पतंगा : यह पतंगा मधुमक्खी वंश का बहुत बड़ा शत्रु है यह छतो की मोम को अनियमित आकार का सुरंग बनाकर खाता रहता है अंदर ही अंदर छत्ता खोखला हो जाता है। जिससे मधुमक्खियाँ छत्ता छोड़कर भाग जाती है इनके द्वारा सुरंगों के उपर टेढ़ी मेढ़ी मकड़ी के जाल जैसे संरचना देखी जा सकती है। इनके प्रकोप की आशंका होने पर छतो को 5 मिनट के लिए तेज धुप में रख देना चाहिये। जिससे इनके उपस्थित मोमी पतंगा की सुंडियां बाहर आकार धुप में मर जाती है। इस प्रकार इसके प्रकोप का आसानी से पता चल जाता है साथ ही सुडिया नष्ट हो जाती है ।
रोकथाम : इसका प्रकोप वर्ष के दिनों में जब मधुमक्खियो की संख्या कम हो जाती है जब होता हैं। जब मौन ग्रगो में आवश्कता से अधिक फ्रेम होते है तो इसके प्रकोप की संभावना बढ़ जाती है। इसलिए अतिरिक्त फ्रेम को मौन गृहों से बहार उचित स्थान पर भंडारित करना चाहिए वर्ष में प्रवेश द्वार संकरा कर देना चाहिए। मौन गृह में प्रवेश द्वार के अलावा अन्य दरारों को अबंद कर देना चाहिए। कमजोर वंशो को शक्तिशाली वंशो के साथ मिला देना चाहिए।
शहद पतंगा यह बड़े आकार का पतंगा होता है। जिसका वैज्ञानिक नाम एकेरोंशिया स्टीवस है यह मौन गृहों में घुस कर शहद खाता है अधिकतर मधुमक्खियां इस पतंगे को मार देती है इस कीट से ज्यादा नुकसान नहीं होता है।
चींटियाँ : इनका प्रकोप गर्मी और वर्ष ऋतु में अधिक होता है जब वंश कमजोर हो तो इनका नुकसान बढ़ जाता है। इनसे बचाव के लिए स्टैंड के कटोरियों में पानी भरकर उसमे कुछ बूंद किरोसिन आयल भी डाल देनी चाहिए। जिससे चींटियो को मौन गृहों पर चढ़ने से बचाया जा सके।
मधुमक्खियों की बिमारियों और उसकी शत्रु: मधुमक्खियों के सफल प्रबंधन के लिए यह आवश्यक है। की उनमे लगने वाली बिमारियों और उनके शत्रुओं के बारे में पूर्ण जानकारी होनी आवश्यक है। जिससे उनसे होने क्षति को बचाकर शहद उत्पादन और आय में आशातीत बढ़ोतरी की जा सकती है। मधुमक्खी एक सामाजिक प्राणी होने के कारण यह समूह में रहती है। जिससे इनमे बीमारी फैलने वाले सूक्ष्म जीवो का संक्रमण बहुत तेजी से होता है। इनके विषय में उचित जानकारी के माध्यम से इससे अपूर्णीय क्षति हो सकती है बिमारियों के अलावा इनके अनेकों शत्रु होते है जो सभी रूप से मौन वंशो को नुकसान पहुचाते है।
यूरोपियन फाउलबु्रड : यह एक जीवाणु मैलिसोकोकस प्ल्युटान से होने वाला एक संक्रामक रोग है। इसका रंग गहरा होता है तथा इनसे प्रौढ़ मक्खी भी नही निकलती है। इस बीमारी की पहचान के लिए एक माचिस की तिल्ली को लेकर मरे हुए डिम्भक के शरीर में चुभोकर बहर की ओर खींचने पर एक धान्गनुमा संरचना बनती है। जिसके आधर पर इस बीमारी की पहचान की जा सकती है ।
रोकथाम : प्रभावित वंशो को मधु वाटिका से अलग कर देना चाहिए प्रभावित वंशों के फ्रेम और अन्य समान का संपर्क किसी दुसरे स्वस्थ वंश से नही होने देना चाहिए। प्रभावित मौन वंश को रानी विहीन कर देना चाहिये। तथा कुछ महीनो बाद रानी देना चाहिये। संक्रमित छत्तों का इस्तेमाल नही करना चाहिय। बल्कि उन्हें पिघलाकर मोम बना देना चाहिए संक्रमित वंशो को टेरामईसिन की 240 मि.लि.ग्रा. मात्रा प्रति 5 लिटर चीनी के घोल के साथ ओक्सीटेट्रासईक्लिन 3-25 मि.ग्रा. प्रति गैलन के हिसाब से देना चाहिये।
नोसेमा रोग : यह एक प्रोटोजवा नोसेमा एपिस से होता है इस बीमारी से मधुमक्खियो की पहचान व्यवस्था बिगड़ जाती है। रोगग्रसित मधुमक्खियाँ पराग की अपेक्षा केवल मकरंद ही एकत्र करना पसंद करती है। ग्रसित रानी नर सदस्य ही पैदा करती है तथा कुछ समय बाद मर भी सकती है। जब मधुमक्खियों में पेचिस, थकान, रेंगने तथा बाहर समूह बनाने जैसे लक्षण दिखे तो इस रोग का प्रकोप समझना चाहिए।
रोकथाम : फ्युमिजिलिन-बी का 0-5 से 6 मि.ग्रा. मात्रा प्रति 100 मि.लि. घोल के साथ मिला कर देना चाहिए। वाईसईकलो हेक्साईल अमोनियम प्युमिजिल भी प्रभावकारी औषध है।
सैकब्रूड : यह रोग भारतीय मौन प्रजातियों में बहुतायात में पाया जाता है। यह एक विषाणु जनित रोग है जो संक्रमण से फैलता है। संक्रमित वंशों के कोष्ठको में डिम्भक खुले अवस्था में ही मर जाते ह। या बंद कोष्ठको में दो छिद्र बने होते है इससे ग्रसित डिम्भको का रंग हल्का पिला होता है अंत में इसमें थैलिनुमा आकृति बन जाती है।
रोकथाम : एक बार इस बिमरी का संक्रमण होने के बाद इसकी रोकथाम बहुत कठिन हो जाती है। इसका कोई कारगर उपोय नही है संक्रमण होने पर प्रभावित वंशों को मधु वाटिका से हटा देना चाहिए। तथा संक्रमित वंशो में प्रयुक्त औजारो या मौन्ग्रिः का कोई भी भाग दुसरे वंशो तक नही ले जाने देना चाहिए। वंशो को कुछ समय रानी विहीन कर देना चाहिए। टेरामईसिन की 250 मि. ग्रा. मात्रा प्रति 4 लिटर चीनी के घोल में मिलकर खिलाया जाये तो रोग का नियंत्रण हो जाता है। गंभीर रूप से प्रभावित वंशो को नष्ट कर देना चाहिए।
एकेराईन : यह आठ पैरो वाला बहुत ही छोटा जीव है जो कई तरह से मधुमक्खियों को नुकसान पहुंचता है। इस रोग में श्रमिक मधुमक्खियाँ मौन गृह के बहर एकत्रित होती है। इनके पंख कमजोर हो जाते है जिससे ये उड़ नही पाती है या उड़ते उड़ते गिर जाती है। और दोबारा नही उड़ पाती है इसका प्रकोप होने पर संक्रमित वंशों को अलग कर गंधक का धुंआ देना चाहिए। गंधक की 200 मि. ग्रा. मात्रा प्रति फ्रेम के हिसाब से बुरकाव करना चाहिए। डिमाईट या क्लोरोबेन्जिलेट जो क्रमशः पीके और फल्बेकस के नाम से बाजार में आता है को धुंए के रूप में देना चाहिए।
रोकथाम : प्रायः ऐसा देखने में आता है की मौनपालक जाने अनजाने मौनो को बचने के लिए जहरीले रसायनों का प्रयोग करते है जिससे काफी मात्रा में मौन मर जाती है। परिणामस्वरुप मौन पलकों को लाभ के बजे नुकसान उठाना पड़ता है इनके प्रबंध के लिए निम्नलिखित उपाय करनी चाहिए ऐसे मौन गृह से फ्रेम की संख्या कम कर देना चाहिए। साथी ही मौन गृह में मधुमक्खियों की संख्या बढ़ाने के उपाय करना चाहिए नर कोष्ठक वाले फ्रेम को बाहर निकाल देना चाहिए। तथा उसमे उपस्थित सभी नर शिशुओं को मार देना चाहिए। तथा दोबारा इस फ्रेम को मौन परिवार में नहीं देना चाहिए। सल्फर का 5 ग्राम पाउडर प्रति वंश के हिसाब से एक सप्ताह के अंतर पर बुरकाव करना चाहिए। फार्मिक एसिड की एक मि.लि. मात्रा एक छोटी प्लास्टिक की शीशी में डाल कर उसके ढक्कन में एक बारीक सुराख बनाकर प्रत्येक मौन गृह में रख देना चाहिए। साथ ही मौन गृह में भोजन की उपलब्धता सुनिश्चित करना चाहिए।
ट्रोपीलेइलेप्स क्लेरी : यह माईट जंगली मधुमक्खी या सारंग मौन का मुख्या रूप से परजीवी है इसका प्रकोप इटैलियन प्रजाति में भी होता है। प्रभावित वंश में प्युपा की अवस्था में बंद कोष्ठक में छिद्र देखे जा सकते है। कुछ प्यूपा मर जाते है जिनको साफ कर दिया जाता है जिससे कोष्ठक खाली हो जाते है। तथा जो डिम्भक बच जाते है उनका विकास विकृत हो जाता है। जैसे पंख, पैर या उदर का अपूर्ण विकास होना इसका लक्षण माना जाता है।
रोकथाम : एकेराईन बीमारी की तरह ही इसकी रोकथाम की जाती है।
वरोआ माईट : सर्वप्रथम यह माईट भारतीय मौन में ही प्रकाश में आई थी लेकिन अब यह मेलिफेरा में भी देखी जाती है। इसका आकार 1.2 से 1.6 मि.मी. है यह बाह्यपरजीवी है जो वक्ष और उदर के बिच से मौन का रक्त चुसती है मादा माईट कोष्ठक बंद होने से पहले ही इसमें घुसकर 2 से 5 अंडे देती है जिससे 24 घंटे में शिशु लारवा निकलता है तथा 48 घंटे में यह प्रोटोनिम्फ में बदल जाता है ।
नियंत्रण : फार्मिक एसिड की 5 मि.लि. प्रतिदिन तलपट में लगाने से इसका नियंत्रण हो जाता है। अन्य उपाय इकेरमाईट के तरह ही करनी चाहिए।
मधुमक्खी पालन उद्योग के फायदे:
शहद का इस्तेमाल बहुत से कामों में होता है। यह खाने में इस्तेमाल होता है। इससे विभिन्न पकवान बनाए जाते हैं और दवा के रूप में भी इसका इस्तेमाल किया जाता है। बाजार में मधु या शहद की अच्छी मांग है। आजकल बहुत से लोग शहद पालन के व्यवसाय में लगे हुए हैं। इस व्यवसाय से अच्छा मुनाफा कमाया जा सकता है।
आज के लेख में हम आपको मधुमक्खी उद्योग के बारे में सभी जानकारी देंगे। इस उद्योग से आप शहद और मोम प्राप्त कर सकते हैं। आपको बाजार से मधुमक्खी पालन बॉक्स (पेटियाँ) लाना होगा। 4 से 5 हजार स्क्वायर फीट की जमीन पर आपको 200 से 300 पेटियों की जरूरत पड़ती है। इन पेटियों के अंदर ही मधुमक्खियां रहती हैं और अपना छत्ता बनाकर शहद का निर्माण करती है।
बक्सों पेटियों में शहद कैसे बनता है
एक बक्से में लगभग 7000 मधुमक्खियां रहती हैं। इसमें एक रानी मधुमक्खी और ड्रोन (नर मधुमक्खी) और वर्कर मधुमक्खी रहती हैं। बक्सों को खेतों और बगीचों में रखा जाता है जहां पर मधुमक्खियों को फूल मिल सके। मधुमक्खियां फूलों का रस पीकर बक्सों के छत्ते में भरती हैं। 3 किलोमीटर तक का भ्रमण करती हैं। रानी मधुमक्खी 1 दिन में 1500 से 2000 तक अंडे देती है। वर्कर मधुमक्खियां अपने पंखों को हिलाकर कर रस का पानी सुखा देती हैं और शहद तैयार हो जाता है।छत्तों से शहद निकालने के लिए उन्हें काट लिया जाता है। निचोड़कर शहद निकाल लिया जाता है। छत्तों को आग पर रखकर भी शहद प्राप्त किया जाता है। निकले हुए शहद को साफ कपड़े से छान लेते हैं। मशीनों से भी शहद छत्तों से निकाला जाता है। इसे पैक कर बाजार भेज दिया जाता है।
मधुमक्खी के प्रकार
इस उद्योग के लिए चार प्रकार की मधुमक्खियों का प्रयोग किया जाता है- एपिस मेलीफेरा, एपिस इंडिका, एपिस डोरसाला और एपिस फ्लोरिया। सबसे अधिक शहद ऐपिस मेलीफेरा मधुमक्खियां बनाती हैं।
वह स्वभाव से शांत होती हैं और इन्हें आसानी से बक्सों में पाला जा सकता है। इस प्रजाति की रानी मधुमक्खी की अंडे देने की क्षमता भी बहुत अधिक होती है।
मधुमक्खी पालन के लिए आवश्यक वातावरण
मधुमक्खी पालन का काम शुरू करने के लिए उस जगह फूलों की अच्छी मात्रा होनी चाहिए। सूरजमुखी, गाजर, मिर्च, सोयाबीन, नींबू, कीनू, आंवला, पपीता, अमरूद, आम, संतरा, मौसमी, अंगूर, यूकेलिप्टस और गुलमोहर जैसे फूल होना चाहिये।
उपयुक्त समय
मधुमक्खी पालन के लिए जनवरी से मार्च तक का समय सबसे अच्छा होता है। नवंबर से फरवरी तक का समय भी अच्छा माना जाता है।
लागत
एक बक्से (पेटी) में 10 फ्रेम होते हैं। एक फ्रेम से 200 ग्राम शहद प्राप्त होता है। 15 दिन बाद ही मधुमक्खियां सभी फ्रेम को फिर से शाहद से भर देती हैं। इस तरह एक बक्से से हर महिना कुल 2 किलो शहद प्राप्त होता है।बाजार में शुद्ध शहद 300 रूपये किलो से अधिक में बिकता है। 2 किलो बेचकर 600 रूपये प्राप्त होते हैं। इस तरह एक बक्से से महीने में 1200 रूपये प्राप्त किए जा सकते हैं। यदि आपके पास 20 बक्से हैं तो 24000 रूपये हर महीना कमा सकते हैं।
शहद की मार्केटिंग
यदि आपका शहद शुद्ध है और आपने उसमें कोई मिलावट नहीं की है तो यह कंपनियों में बिक जाएगा। शहद बनाने वाली कंपनी में जाकर बेच सकते हैं जिससे आपको बहुत अच्छे दाम मिलेंगे। आप अपने शहर, आसपास की दुकानों पर भी शहद बेच सकते हैं।इसके अलावा आप खुद भी दुकान खोलकर शुद्ध शहद बेच सकते हैं। शुद्ध शहद की मांग बहुत अधिक होती है। यह तुरंत ही बिक जाता है।
मधुमक्खी पालन के लिए आवश्यक बातें
- यह उद्योग अपनाते समय वही मधुमक्खी पालनी चाहिए जो फायदेमंद होती हैं और अधिक शहद बनाती हैं। छिपकलियों, लोमड़ी, भालू मधुमक्खियों को खा जाते हैं। इसलिए इसका विशेष ध्यान रखें।
- मधुमक्खी पालन के लिए बक्सों (पेटियां) आप किसी कारीगर से भी बनवा सकते हैं। इस तरह आपको सस्ती पड़ेगी।
- बक्सों को बारिश के पानी से बचाना चाहिए। बारिश का पानी मधुमक्खी पालन उद्योग के लिए नुकसानदायक है। यह मधुमक्खियों और उनके छत्तों को नष्ट कर सकता है। उसी स्थान पर मधुमक्खी पालन करना चाहिए जहां पर बारिश का पानी जमा ना होता हो।
- मधुमक्खी पालन के लिए जहां पर मधुमक्खियां पाली जाएं उसके चारों ओर जो भी फसल लगी हो उस पर कीटनाशक का इस्तेमाल कम से कम करना चाहिए। किसान अक्सर फसलों पर कीटनाशक का इस्तेमाल करते हैं जिस पौधों के फूलों पर मधुमक्खियां बैठती हैं। फूलों का पराग और मकरंद चूसने से उनकी मौत हो जाती है।
मधुमक्खी पालन उद्योग के फायदे
हमारे देश में बहुत से युवा बेरोजगार हैं। वे सभी लोग जिनके पास करने को कोई काम नहीं है वे इस उद्योग को अपनाकर लाभान्वित हो सकते हैं और पैसा कमा सकते हैं।
Material | Quantity | Rate | Funds |
Bee Hive Collony | 60 | 3500 | 21000 |
Honey Extractor | 01 | 3800 | 3800 |
Honey Net | 01 | 800 | 800 |
Mt Net | 08 | 600 | 4800 |
Hive Tool | 01 | 100 | 100 |
Bee Bieves | 10 | 100 | 1000 |
Stand | 90 | 120 | 10800 |
Total | 231300 |
मधुमक्खी पालन में अनुमानित आय–
मधुमक्खी पालन से प्राप्त मधु- 320
मधुमक्खी पालन से प्राप्त आय – 2560000
मधुमक्खी पालन में व्यय – 231300
शुद्ध लाभ– 2328700